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कितना महनीय है श्री राम का जीवन चरित्र
जैन, बौद्ध, सिख, सनातन सभी धर्म सम्प्रदायों में जिनका नाम गौरव के साथ लिया जाता है, वह नाम है - श्रीराम। न केवल भारतीय परम्परा बल्कि विदेशी धरती पर भी श्रीराम का नाम गौरव के साथ आदर्श के रूप में लिया जाता है। श्रीराम का नाम वैश्विक स्तर पर विश्रुत है। रामायण एक महाग्रन्थ है। तुलसी और वाल्मीकी रामायण एक महनीय ग्रंथ है जिसमें श्रीराम के जीवन चरित्र को विशद् रूप में व्याख्यायित किया गया है। श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है क्योंकि उनका कार्य मर्यादा-सहित था। श्रीराम के जीवन के अनेक प्रसंग प्राप्त होते हैं, जिनमें उन्होंने मर्यादा को सर्वोपरि स्थान दिया। और तो क्या, जब राम और रावण का युद्ध चल रहा था, उस समय बाण के एक प्रहार से लक्ष्मण बेहोश कर गिर पड़ते हैं। भ्रातृप्रेम से विह्वल होकर राम भी उदासीन होकर बैठे हैं। उस समय राम के उदासीन चेहरे को देखकर नील, अंगद आदि सुभट परस्पर में बात करते हुए बोलते हैं—देखो, प्रभु राम भी आज कितने दुःखी हैं क्योंकि भाई लक्ष्मण बेहोश पड़े हैं। माता कौशल्या अयोध्या में हैं और माता सीता रावण की अशोक वाटिका में हैं। ये शब्द सुनकर श्रीराम ने कहा—मुझे इस बात का कोई गम नहीं कि मेरा प्यारा भाई लक्ष्मण बेहोश पड़ा है, न ही मेरे मन में इस बात का दुःख है कि मेरी माता कौशल्या अयोध्या में हैं। मुझे इस बात का अफसोस भी नहीं कि मेरी चरण-चंचलिका सीता रावण की अशोक वाटिका में विलाप कर रही है। मुझे कोई दुःख है तो सिर्फ इस बात का कि जब विभीषण मेरे पास आया था, तब मैंने उसे लंकेश शब्द से संबोधित किया था। अब अगर शक्ति के प्रहार से लक्ष्मण नहीं रहेगा तो मैं भी जीवित नहीं रह सकूँगा और मैं विभीषण को लंका का अधिपति नहीं बना सका तो मेरा वचन भंग हो जाएगा। आज मुझे दुःख है सिर्फ इस बात का कि मेरा वचन निष्फल हो जाएगा। उस रणभूमि में राम को अपने वचन भंग होने का दुःख सता रहा था। यह था श्रीराम के जीवन का आदर्श कि मेरा वचन भंग नहीं होना चाहिए। इसीलिए कहा जाता है— रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाय पर वचन न जाए।
आज के युग में राम का नाम जपने वाले बहुत हैं, पर श्रीराम के आदर्शों पर चलने वाले कहाँ मिलते हैं। रामायण का नित्य पाठ करने वाले बहुत मिलते हैं। संत वाल्मीकी द्वारा रचित अद्भुत रामायण को संत वाल्मीकी ने देवता, दानवों और मानवों में बाँटने के बाद शेष बचे दो अक्षर 'राम' को अपने पास रख लिया। तब सबने कहा—जब रामायण में से राम को अपने पास में रख लिया, फिर हमको क्या मिला? जब रामायण का सारभूत तत्त्व राम है, उसी प्रकार धर्म का सार है—सत्य। आज धर्म की उपासना करने वाले तो बहुत मिलते हैं, पर सत्य पर अडिग रहने वाले कोई विरले ही होते हैं।
जब एक बार श्रीराम नदी के किनारे पहुँचे तो देखा, एक बगुला धीमे-धीमे कदमों से चल रहा था। तब राम ने लक्ष्मण को सम्बोधित करते हुए कहा—'देखो लक्ष्मण, पश्य लक्ष्मण पम्पायां बकः परम धार्मिकः। मन्दं मन्दं पदं धते, जीवानां वध शंकया।' हे लक्ष्मण—यह बगुला कितना धार्मिक है, जो धीमे-धीमे पैरों से चल रहा है, कि इसमें कितना करूणा का भाव है। यह सोच रहा है—मेरे पैर से कोई जीव मर न जाए। यह सुनकर मछलियों ने कहा—हे राम! आप जिस बगुले की प्रशंसा कर रहे हैं, लगता है आप भी इस बगुले की मनोवृत्ति को नहीं जानते। यह तो हम जानते हैं कि यह बगुला कैसा है। अरे! इसने हमारे वंश को ही समाप्त कर दिया क्योंकि हम इसके चरित्र को जानती हैं। रात-दिन हमारे आस-पास यह रहता है। आवश्यकता है—व्यक्ति का चरित्र श्रेष्ठ होना चाहिए। उसकी कथनी-करनी में समानता होनी चाहिए। राम के आदर्शों को अपनाने की आवश्यकता है। केवल नाम जपना ही सार्थक नहीं होता।
एक कवि ने बहुत सुन्दर पंक्तियाँ लिखी हैं—
'तुम पुण्य कार्य मत करो भले ही,
किन्तु करो मत पाप;
पुण्य के फल को पा लोगे।
तुम राम नाम मत जपो भले ही,
किन्तु करो सत्काम;
राम के बल को पा लोगे।'
आवश्यकता है विजयादशमी के इस अवसर पर यह संकल्प हो कि हम जीवन में कथनी-करनी की एकरूपता को अपनाकर सदैव सत्य को सुरक्षित रखेंगे। तभी पर्व मनाने की सार्थकता हो सकेगी। तभी जीवन में विजयश्री को हासिल कर पाएँगे।