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भाव, भाषा और क्रिया से जुड़ी है हिंसा
राजराजेश्वरी नगर। जैन धर्म की आचार्य परम्परा में आचार्य भिक्षु का नाम एक क्रांतिकारी, प्रभावक एवं सत्याग्रही आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित है। उन्होंने साधना की पवित्रता, संघ की सुदृढ़ता, सामुदायिक व्यवस्था व संविभागिता पर बहुत बल दिया। उक्त विचार व्यक्त करते हुए साध्वी पुण्ययशाजी ने कहा- आचार्य भिक्षु का 223 वां चरम महोत्सव हम त्रिदिवसीय कार्यक्रम के रूप में मना रहे हैं। आचार्य भिक्षु के सिद्वान्त आज भी प्रासंगिक हैं। उन्होंने कहा– हिंसा भाव, भाषा और क्रिया से जुड़ी है। किसी का मात्र प्राण वियोजन कर देना ही हिंसा नहीं निषेधात्मक भावों के साथ जीना भी हिंसा है। हिंसा में तलवार के लिए हाथ भले न भी उठे पर किसी को मारने का संकल्प भी मानस भूमि पर उतर गया तो वह व्यक्ति हिंसा का भागीदार बन जायेगा। व्यक्ति स्वयं अपराध न करे पर अपराध में दिया गया सहयोग अपराध की स्वीकृति ही होगी इसलिए कृत, कारित और अनुमोदित हिंसा हिंसा है। मन का संयम निषेधात्मक भावों का शोधन करेगा, भाषा का संयम वैचारिक संघर्षों को विराम देगा और क्रिया का संयम इच्छाओं और अपेक्षाओं के बीच संतुलन स्थापित करेगा। मंगलाचरण महिला मंडल की बहनों के द्वारा भिक्षु अष्टकम से किया गया। साध्वी विनीतयशाजी ने कविता के माध्यम से अपने आराध्य को अपनी श्रद्धा समर्पित करते हुए कुशलता से मंच का संचालन किया। साध्वी वर्धमानयशा जी ने आगमवाणी पर अपने विचारों की अभिव्यक्ति दी।