शक्ति का उद्देश्य हो स्व और पर कल्याण : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कोबा, गांधीनगर। 23 सितम्बर, 2025

शक्ति का उद्देश्य हो स्व और पर कल्याण : आचार्यश्री महाश्रमण

शारदीय नवरात्रा के द्वितीय दिवस आराधना के क्रम में जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्म संघ के एकादशमाधिशास्ता महातपस्वी युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने समुपस्थित चतुर्विध धर्म संघ को आध्यात्मिक अनुष्ठान के क्रम में मंत्र जाप का प्रयोग करवाया। अनुष्ठान के पश्चात् पूज्य आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘आयारो’ आगम के माध्यम से पावन संबोध प्रदान करते हुए फरमाया कि उत्थित और स्थित की गति को सम्यकतया देखो। उत्थित का अर्थ है उठा हुआ और स्थित का अर्थ है ठहरा हुआ और गति का अर्थ है - गमन क्रिया। शरीर के संदर्भ में व्यक्ति बैठा हुआ था और यदि खड़ा हो गया तो उत्थित हो गया और स्थित था अर्थात् गति निवृत्ति थी या खड़ा रह गया वह स्थिर और चलना गति हो जाती है। उठना एक विकास की बात भी हो सकती है।
यदि हम आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से विचार करें तो अभी नवरात्र में आध्यात्मिक अनुष्ठान का क्रम चल रहा है। यह समशीतोष्ण काल का समय है। इस समय सर्दी और गर्मी की दृष्टि से मौसम समान सा रहता है साथ ही दिन और रात भी लगभग बराबर से रहते हैं। व्यक्ति का आध्यात्म्कि दृष्टि से उत्थान हो और शक्ति का भी विकास हो। प्रश्न हो सकता है कि शक्ति क्यों चाहिए और शक्ति कौनसी चाहिए? शरीर की दृष्टि से बात करें तो शारीरिक शक्ति भी महत्त्वपूर्ण होती है। व्यक्ति का शरीर स्वस्थ रहे, बीमारी आदि न हों, शरीर तंत्र अच्छा कार्य करे, शारीरिक श्रम हो सके इसलिए शरीर की शक्ति का भी महत्त्व है। दूसरी शक्ति मन की शक्ति होती है। जिस व्यक्ति के पास मन की शक्ति होती है, वह कठिन और चुनौतीपूर्ण कार्य भी सम्पन्न कर सकता है। उपर्युक्त दोनों तन और मन की शक्ति के साथ सहन शक्ति और वचन शक्ति भी होनी चाहिए। व्यक्ति में सहिष्णुता होनी चाहिए जिससे वह अच्छा विकास कर सकता है। किसी विषय पर भाषण देना हो, बात करनी हो तो वचन की शक्ति भी अपेक्षित होती है। व्यक्ति धाराप्रवाह बोल भी सके और सामने वाले उस बात को सुन सकें और समझ भी सकें। गृहस्थों को धन की शक्ति और राजनेताओं को जन बल, जन शक्ति की भी आवश्यकता हो सकती है। कभी विघ्न-बाधाएं आए तो उसके निवारण के लिए देवी-देवताओं की शक्ति की भी अपेक्षा हो सकती है।
आध्यात्मिक संदर्भ में चारित्र मोहनीय और दर्शन मोहनीय के क्षयोपशम की शक्ति और बाद में क्षायिक शक्ति नितान्त आवश्यक होती है। इस प्रकार शक्ति क्यों चाहिए का उत्तर है - कि मैं स्वकल्याण कर सकूं और दूसरों की सेवा कर सकूं, इसलिए मुझे शक्ति चाहिए। कैसी शक्ति चाहिए इसका उत्तर हो सकता है कि स्वकल्याण और परकल्याण के लिए शरीर की शक्ति, मनोबल अर्थात् मन की शक्ति, वचन की शक्ति और आध्यात्मिक शक्ति यानी क्षयोपशम की शक्ति चाहिए। शक्ति का उद्देश्य ऐसा नहीं होना चाहिए कि किसी का बिगाड़ करने की बात सोचें, शक्ति और साधना का उद्देश्य केवल स्व और पर कल्याण होना चाहिए। आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के पश्चात् मुनि ध्यानमूर्ति जी ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी।