गुरुवाणी/ केन्द्र
शब्द की दुनिया से पार अशब्द की दुनिया में हो प्रवेश : आचार्यश्री महाश्रमण
प्रेक्षा विश्व भारती कोबा के ‘वीर भिक्षु समवसरण’ में युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल मंत्रों के जप के प्रयोग से समुपस्थित चतुर्विध धर्म संघ को आध्यात्मिक अनुष्ठान करवाया। अनुष्ठान के पश्चात् प्रेक्षाध्यान कल्याण वर्ष की सम्पन्नता समारोह के संदर्भ में मुख्यमुनिश्री महावीर कुमारजी ने प्रेक्षा गीत का संगान किया। ध्यान योगी युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘आयारो’ आगम के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि ‘अच्छी तरह प्रतिलेखन करके सत्य का ही अनुशीलन करो।’ प्रश्न हो सकता है कि सत्य का साक्षात्कार कैसे हो? उत्तर हो सकता है - आत्म साक्षात्कार। आत्म साक्षात्कार और सत्य साक्षात्कार में कुछ समानता हो सकती है। एक आत्मा को सर्वतः जान लिया और केवल ज्ञान हो जाए तो सबको जाना जा सकता है। हम शब्द को जानते हैं, परन्तु शब्द से भी पार अशब्द की दुनिया में भी प्रवेश हो। हम तर्क को जानते हैं, बौद्धिकता में तर्कशक्ति का भी महत्त्व है पर आत्म साक्षात्कार की भूमिका में तर्क की अपेक्षा नहीं रहती।
प्रेक्षाध्यान के सूत्रों में आता है कि स्वयं सत्य को खोजो। जहां ग्रन्थ और पंथ की आवश्यकता नहीं वहां ध्यान होता है और जहां ध्यान होता है वहां शब्द की आवश्यकता नहीं होती। ध्यान की उच्च भूमिका में सामान्यतया प्रवृत्ति नहीं हो, केवल सहजता रहे। ध्यान के लिए शरीर की चंचलता को कम करना बहुत महत्त्वपूर्ण है तभी मन की चंचलता कम की जा सकती है। शरीर की चंचलता कम हो जाए और शरीर स्थिर हो जाए तो ध्यान की बहुत अच्छी पृष्ठभूमि तैयार हो जाती है। इसके साथ ही व्यक्ति को मौन की साधना करने का प्रयास करना चाहिए। शरीर की स्थिरता के साथ मौन भी हो जाए तो ध्यान की अच्छी साधना हो सकती है। प्रेक्षाध्यान अध्यात्म की साधना से प्रेम रखने वाले लोगों के लिए बहुत उपयोगी है। अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान व जीवन विज्ञान हमारे गुरुओं द्वारा समाज को दी गई अमूल्य निधि है, जिससे सम्पूर्ण मानव समाज लाभान्वित हो सकता है। आज प्रेक्षाध्यान देश के साथ-साथ विदेशों में भी फेल रहा है। प्रेक्षाध्यान के माध्यम से आत्मशुद्धि का प्रयास करना चाहिए। आगे योगक्षेम वर्ष है तो प्रेक्षाध्यान के विकास पर चिंतन-मंथन हो सकता है।
ध्यान व्यक्ति को एकाग्रता की स्थिति में ले जाने वाला होता है। शरीर में जो स्थान मस्तक का है, वही स्थान जीवन में ध्यान का है। प्रेक्षाध्यान को प्रारंभ हुए 50 वर्ष हो गए हैं। ध्यान के संदर्भ में आचार्य श्री महाप्रज्ञजी के अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं। व्यक्ति को अपने व्यक्तिगत जीवन के साथ प्रतिदिन के लिए ध्यान को जोड़ने का प्रयास करना चाहिए। ध्यान के साथ स्वाध्याय का जुड़ाव होना चाहिए। पूज्य गुरुदेव ने प्रेरणा दी कि ‘मनोनुशासनम्’ ग्रन्थ प्रेक्षाध्यान के लिए एक आधारभूत ग्रन्थ हो सकता है। इसके साथ ही पांच अणुव्रत – अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह भी ध्यान साधना के लिए मौलिक तत्त्व हैं। जितना अणुव्रत जीवन में होगा उतनी ही ध्यान साधना गहरी होगी। अतः ध्यान साधक को अणुव्रतों का भी संकल्प करवाया जाना चाहिए।
आचार्यश्री ने प्रेक्षाध्यान कल्याण वर्ष के संदर्भ में कहा कि आज इसकी संपन्नता का दिन आ गया है। आचार्यश्री तुलसी और आचार्यश्री महाप्रज्ञजी द्वारा जो कार्य प्रारंभ हुआ है, उसके यथा योग्य संरक्षण और विकास का प्रयास करना चाहिए। प्रेक्षाध्यान कल्याण वर्ष के संदर्भ में अपने उद्बोधन में साध्वीप्रमुखा श्री विश्रुतविभाजी ने कहा कि अध्यात्म में भीतर की ओर देखा जाता है और भीतर को देखने में बहुत बड़ा माध्यम है - ध्यान। प्रेक्षाध्यान कल्याण वर्ष में अनेक लोगों ने ध्यान के प्रयोग से अपने जीवन में परिवर्तन का अनुभव किया। ध्यान की गहराई और एकाग्रता होने पर व्यक्ति अपने कर्म शरीर को प्रकंपित करता है। अतः ध्यान की एकाग्रता का विकास होना चाहिए।
साध्वीवर्या श्री संबुद्धयशाजी ने उद्बोधित करते हुए कहा कि आचार्यश्री तुलसी और आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने हमें एक ऐसा पारसमणि दिया है जो आत्मा को सोना बना सकता है और वह है - प्रेक्षाध्यान। इसके माध्यम से हम आरोग्य, बोधि और समाधि का वरदान प्राप्त कर सकते हैं। इस संदर्भ में प्रेक्षा फाउण्डेशन, जैन विश्व भारती के अध्यक्ष अमरचंद लुंकड़, प्रेक्षा इंटरनेशनल के अध्यक्ष अरविंद संचेती, प्रेक्षा विश्व भारती के अध्यक्ष भैंरूलाल चौपड़ा ने अपनी अभिव्यक्ति दी। आचार्य प्रवर के मंगल आशीष के साथ प्रेक्षाध्यान कल्याण वर्ष का सुसमापन हुआ। कार्यक्रम का संचालन प्रेक्षाध्यान के आध्यात्मिक पर्यवेक्षक मुनि कुमारश्रमणजी ने किया।