मन की चंचलता से बचने का हो प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कोबा, गांधीनगर। 03 अक्टूबर, 2025

मन की चंचलता से बचने का हो प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण

जैन श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अधिशास्ता, महातपस्वी, महामनस्वी, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘आयारो’ आगम के माध्यम से अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि मानव जीवन में आवर्त का निरीक्षण कर शास्त्रज्ञ, ज्ञानी पुरुष उससे विरत हो जाए। शारीरिक दृष्टि से चक्कर आने लग जाए तो उससे भी कुछ कठिनाई पैदा हो सकती है। हमारा मन भी कई बार उथल-पुथल हो जाता है, चंचलता हो जाती है। मन में मलिनता और चंचलता, दोनों समस्या का सृजन करने वाली और कष्ट देने वाली बन सकती हैं। मन में राग-द्वेष, ईर्ष्या, घृणा जैसे असत भाव उत्पन्न होने से कष्ट पैदा हो सकता है। मन में विचारों का प्रवाह बहुत चलता है। विचारों का प्रवाह चलता है तो जप और प्रतिक्रमण भी बाधित हो सकते हैं, स्वाध्याय बाधित हो सकता है। विचारों का प्रवाह जब अधिक होता है तो कहीं न कहीं राग-द्वेष उनके साथ जुड़ सकते हैं। विचारों के साथ जब राग-द्वेष जुड़ जाता है तो वह अधिक कष्टदायक हो सकता है। राग-द्वेषमुक्त विचार ज़्यादा आएँगे नहीं और यदि आ भी गए तो उतना कष्ट नहीं देंगे।
मन की चंचलता और मलिनता से जब छुटकारा हो जाता है, मन निर्मलता और एकाग्रता को प्राप्त कर लेता है तो मन बड़ा सुमन बन जाता है। दुःख शारीरिक और मानसिक, दोनों प्रकार का हो सकता है। जरा शारीरिक दुःख है और शोक मानसिक दुःख है। हमारे जीवन में शारीरिक कठिनाइयाँ भी आ सकती हैं और मानसिक पीड़ा भी आ सकती है। जरा और शोक से छुटकारा मिल जाए तो जीवन कष्टमुक्त रह सकता है। जीवन में व्याधि, आधि और उपाधि न रहे तो समाधि प्राप्त हो सकती है। हम समाधि की अवस्था को प्राप्त हों, इसके लिए हमें आवर्त से बचना चाहिए। राग-द्वेष, आसक्ति और मन की चंचलता से बचने का प्रयास करना चाहिए। जो व्यक्ति साधना में संलग्न हो जाता है, वह व्यक्ति आवर्त से छुटकारा प्राप्त कर सकता है।
परम पूज्य आचार्यश्री भिक्षु का जन्म त्रिशताब्दी वर्ष चल रहा है और इसी वर्ष के अंतर्गत आचार्यश्री तुलसी के दीक्षा के सौ वर्ष पूरे होने जा रहे हैं। आद्य आचार्यश्री भिक्षु युवावस्था में और आचार्यश्री तुलसी बाल्यावस्था में दीक्षित हुए। आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी जीवन के ग्यारहवें वर्ष में दीक्षित हो गए थे। आचार्यश्री तुलसी और आचार्यश्री महाप्रज्ञ ‘युगप्रधान’ की उपाधि से नवाज़े गए। आचार्यश्री तुलसी ने बहुत पुरुषार्थ किया, बहुत लंबी पद यात्राएँ कीं। साधु का जीवन आवर्त से छुटकारा पाने का समय होता है। संतता प्राप्त होना बड़े सौभाग्य की बात होती है। अतः शास्त्र में कहा गया है कि आवर्त को जानकर, निरीक्षण कर उससे विरत होना चाहिए।
आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के पश्चात साध्वीवर्या श्री संबुद्धयशाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि जिस व्यक्ति का संकल्प मजबूत होता है, वह व्यक्ति अपने जीवन में मनचाही सफलता प्राप्त कर सकता है। जिस व्यक्ति का संकल्प मजबूत नहीं होता है, वह अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता है। संकल्प तीन उपायों से मजबूत बन सकता है — इन्द्रियों पर नियंत्रण, कष्ट-सहिष्णुता और तीसरा मन की एकाग्रता। इन तीनों से हम अपनी संकल्प शक्ति को दृढ़ बना सकते हैं। साम्प्रदायिक सौहार्द दिवस के संदर्भ में आचार्य प्रवर ने पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि अणुव्रत का एक संदेश है — मैत्री। सबके साथ मैत्री हो और सब प्राणियों के साथ मैत्री हो। दुनिया में अलग-अलग सम्प्रदायों में भी धार्मिक सहिष्णुता रखने का प्रयास करना चाहिए। हम सभी को दूसरों के प्रति यथायोग्य सहयोग करने का प्रयास करना चाहिए। मुनि मदनकुमारजी ने अपनी अभिव्यक्ति दी। सौम्या लुंकड़ एवं छत्तीसगढ़-रायपुर ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने अपनी प्रस्तुति दी। चेन्नई तेरापंथी सभा के अध्यक्ष अशोक खतंग ने अपनी अभिव्यक्ति दी। चेन्नई ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने अपनी प्रस्तुति दी। आचार्यश्री ने ज्ञानार्थियों को मंगल आशीर्वाद प्रदान किया।