स्वाध्याय से प्राप्त हो सकती है आध्यात्मिक स्फुरणा : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कोबा, गांधीनगर। 04 अक्टूबर, 2025

स्वाध्याय से प्राप्त हो सकती है आध्यात्मिक स्फुरणा : आचार्यश्री महाश्रमण

जैन श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, अखंड परिव्राजक, महातपस्वी, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘आयारो आगम’ के माध्यम से अमृत देशना प्रदान करते हुए कहा कि हमारी सृष्टि में जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दुःख है और मृत्यु भी दुःख है। बुढ़ापा आता है, आदमी परवश हो जाता है। अपना कार्य स्वयं नहीं कर सकता, अतः बुढ़ापा भी एक दुःख है। मृत्यु भी दुःख है — मृत्यु की बात सुनते ही आदमी दुःखी हो जाता है। मृत्यु के समय भी आदमी को कष्ट हो सकता है। जन्म को भी दुःख कहा गया है।
जो मुनि सूत्र और अर्थ में रत रहता है, वह जन्म-मरण के वृत्त मार्ग का अतिक्रमण कर देता है। स्वाध्याय अपने आप में एक तपस्या है, इससे ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है। स्वाध्याय से मोहनीय कर्म भी कमजोर पड़ सकता है, यदि आदमी की भावधारा अच्छी हो जाए। आदमी का मन यदि ज्ञान की अच्छी बातों में लगे तो सुख भी मिल सकता है और कर्म निर्जरा भी हो सकती है। ज्ञान के अनेक ग्रंथ हैं, पर उन ग्रंथों का ही स्वाध्याय करना महत्त्वपूर्ण हो सकता है, जिनसे आध्यात्मिक स्फुरणा मिलती हो। जो ज्ञान आदमी को राग से विराग की ओर बढ़ाए, जिससे चेतना मैत्री भाव से भावित हो जाए — वही ज्ञान असली ज्ञान है।
आगम शास्त्रों के स्वाध्याय से राग से विराग की ओर गति हो सकती है, कल्याणों में अनुरक्ति हो सकती है और सब प्राणियों के प्रति मैत्री भाव भी पैदा हो सकता है। स्वाध्याय की रुचि हो और शुभ योगों में स्थिति हो, साथ ही अच्छी प्रेरणा मिले, तो साधु का अच्छा उत्थान हो सकता है। साधु के साथ यदि सामान्य गृहस्थ भी धार्मिक ज्ञान में रुचि ले, तो उसका भी अच्छा उत्थान हो सकता है। सामायिक में अच्छी पुस्तकों का स्वाध्याय करें, वैराग्यपरक गीतों का संगान करें, तो भीतर में भावशुद्धि का संचार हो सकता है। वैदुष्य-संपन्न साधु-साध्वियों का प्रवचन सुनना भी जीवन में अच्छी गति-प्रगति लाने वाला हो सकता है। श्रवण करने से अच्छे ज्ञान की प्राप्ति होती है। ज्ञान का विकास होता है, तो आदमी को विशेष ज्ञान-विज्ञान हो सकता है। विशेष ज्ञान होने से आदमी त्याग-प्रत्याख्यान की दिशा में भी गति कर सकता है।
साधु को स्वयं तो स्वाध्याय करना ही चाहिए, दूसरों को भी उस स्वाध्याय से लाभान्वित करने का प्रयास करना चाहिए। कई लोग स्वाध्याय करके इतने निपुण बन जाते हैं कि वे जिज्ञासाओं को समाधान करने में भी सक्षम हो जाते हैं। स्वाध्याय करने से उन्हें अपने विषय में विशेषज्ञता प्राप्त हो जाती है। अभी वर्तमान में आचार्य भिक्षु का जन्म त्रिशताब्दी वर्ष चल रहा है। आचार्य भिक्षु अपने समय के आगम शास्त्रों के अच्छे ज्ञाता और प्रवक्ता थे। उनमें बात को समझाने का अच्छा कौशल था। आचार्य भिक्षु में ज्ञान के साथ-साथ अच्छी नेतृत्व क्षमता भी थी। अतः ज्ञान प्राप्ति के साथ-साथ उसको प्रस्तुत करने का भी अच्छा कौशल होना चाहिए। इसलिए सूत्र और अर्थ में रत मुनि जन्म-मरण के वृत्त से मुक्त हो सकता है।
अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह के चतुर्थ दिवस ‘पर्यावरण शुद्धि दिवस’ के संदर्भ में आचार्यप्रवर ने कहा कि यह समय अणुव्रत के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण समय है। पर्यावरण बाह्य और भीतरी — दोनों प्रकार का होता है। पर्यावरण शुद्ध रहे, इसके लिए प्रकृति से प्राप्त संसाधनों के अनावश्यक दोहन से बचने का प्रयास करना चाहिए। हरे-भरे वृक्ष को नुकसान पहुँचाना भी बड़ा पाप और हिंसा जैसा कार्य हो जाता है। आदमी को जल का संयम, वनस्पतियों का अनावश्यक नुकसान पहुँचाने से बचने का प्रयास करना चाहिए। इससे संयम और अहिंसा की साधना भी होगी और पर्यावरण की सुरक्षा भी हो सकेगी। प्लास्टिक की चीज़ों के उपयोग में संयम एवं उनके निस्तारण में भी जागरूकता रखनी चाहिए। आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में जैन श्वेतांबर तेरापंथी महासभा के तत्वावधान में ज्ञानशाला प्रशिक्षक सम्मेलन का मंचीय उपक्रम रहा। इस संदर्भ में बालिका आराध्या गोलेछा ने गीत का संगान किया। ज्ञानशाला के राष्ट्रीय संयोजक सोहनराज चौपड़ा ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। ज्ञानशाला प्रशिक्षिकाओं ने गीत का संगान किया। आचार्यश्री ने मंगल आशीर्वाद प्रदान किया।