प्रतिसंलीनता से इन्द्रिय विषयों का करें परिमार्जन : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कोबा, गांधीनगर। 02 अक्टूबर, 2025

प्रतिसंलीनता से इन्द्रिय विषयों का करें परिमार्जन : आचार्यश्री महाश्रमण

जैन श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, महातपस्वी, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘आयारो’ आगम के माध्यम से अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि हमारे शरीर में स्रोत हैं, छिद्र हैं, जहाँ से पदार्थ निकलते हैं। शरीर को तीन भागों में बाँटा जा सकता है - ऊर्ध्व भाग, मध्य भाग और अधो भाग। प्रेक्षा ध्यान पद्धति में ध्यान ऊर्ध्व भाग, मध्यवर्ती भाग और थोड़ा बहुत अधो भाग — तीनों भागों में किया जाता है। स्रोत का एक अर्थ है इन्द्रियाँ। इन्द्रिय विषयों के सेवन में जो अंग काम में आते हैं, वे अंग भी स्रोत हैं। शरीर में नौ और बारह स्रोत भी बताए गए हैं। जैसे, मुख एक स्रोत है — मुख से थूक भी निकलता है, कफ भी निकलता है। दोनों कानों में से भी कान की गंदगी निकलती है। नाक के दोनों छिद्रों में से भी श्लेष्म आदि गंदगी निकलती है और भी ऐसे द्वार हैं, जहाँ से पदार्थ शरीर में से बाहर निकलते हैं। इससे व्यक्ति को यह सोचना चाहिए कि जिस शरीर से मैं इतना मोह करता हूँ, आसक्ति करता हूँ, वह शरीर भीतर से कितनी गंदगी से भरा हुआ है। मल-मूत्र आदि कितनी गंदगी इस शरीर के भीतर से निकलती है। यह अशुचि की भावना करके शरीर के प्रति अनासक्ति के भाव को संपुष्ट किया जा सकता है।
इन स्रोतों के माध्यम से व्यक्ति आसक्ति में भी जा सकता है। इन्द्रिय विषयों के प्रति आसक्त होकर अध्यात्म से दूर हो जाता है। निर्जरा या तप के बारह भेदों में एक है प्रतिसंलीनता। प्रतिसंलीनता का अर्थ है इन्द्रियों का संयम। जैसे, कान से सुनना बंद कर दें तो यह श्रोतेन्द्रिय की प्रतिसंलीनता हो जाती है। श्रोतेन्द्रिय प्रतिसंलीनता का दूसरा प्रकार हो सकता है कि जब सुनना हो और कान में शब्द पड़े तो राग-द्वेष न करें। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के विषय में भी समझें — या तो इन्द्रियों का निरोध करें अथवा उपयोग में लेना हो तो इन्द्रिय विषयों के प्रति राग-द्वेष का भाव न लाएँ। यह इन्द्रिय प्रतिसंलीनता है।
विद्यार्थियों के संदर्भ में पूज्य गुरुदेव ने कहा कि फास्ट फूड और डिजिटल यंत्रों का भी संयम करना चाहिए। अनावश्यक मोबाइल आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इनका अनावश्यक उपयोग नहीं करना भी इन्द्रिय प्रतिसंलीनता में सम्मिलित हो सकता है। सामायिक करने से भी अच्छा संयम हो जाता है। सामायिक में स्वाध्याय आदि करने पर शुभयोग होने से निर्जरा आदि का लाभ भी हो जाता है। जैन वाङ्मय में अहिंसा, संयम, तप आदि की बातें आती हैं। इन अध्यात्म के तत्वों की हमें साधना-आराधना करनी चाहिए। अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह का दूसरा दिन अहिंसा दिवस के रूप में समायोजित किया गया। इस संदर्भ में हाईकोर्ट के पूर्व जज एस. जी. शाह आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में उपस्थित हुए। सुधीर मेहता ने शाह का परिचय प्रस्तुत किया। जज शाह ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी।
अहिंसा दिवस के संदर्भ में पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए आचार्य प्रवर ने कहा कि छोटी-छोटी हिंसा के कार्य व्यक्ति के दैनिक जीवन से जुड़े हुए हो सकते हैं, फिर भी जितना संभव हो सके हिंसा का अल्पीकरण करने का प्रयास करना चाहिए। हिंसा तीन प्रकार की होती है — आरंभजा, प्रतिरोधजा और संकल्पजा। आरंभजा और प्रतिरोधजा हिंसा तो निंदनीय नहीं है, परन्तु व्यक्ति को संकल्पजा हिंसा से बचने का प्रयास करना चाहिए। बिना अर्थ एक चींटी, कबूतर या किसी भी प्राणी को तकलीफ न हो — ऐसा अहिंसा का भाव होना चाहिए। बालिका काम्या नौलखा ने अपनी प्रस्तुति दी। जैन विद्या विभाग बेंगलुरु की ओर से गौतम डोसी ने अपनी अभिव्यक्ति दी।