धर्म है उत्कृष्ट मंगल

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाश्रमण

धर्म है उत्कृष्ट मंगल

अणुव्रत का आधारभूत तत्त्व है आत्मानुशासन। यह एक धर्म है सम्प्रदाय नहीं। किसी भी धर्म-सम्प्रदाय में विश्वास रखने वाला व्यकि उसकी सदस्यता को सुरक्षित रखते हुए अणुव्रत की आचार संहिता को स्वीकार कर सकता है। यह एक मानव-धर्म है, मानवीय आचार संहिता है।
अणुव्रत आन्दोलन मानव मात्र के लिए है, फिर चाहे कोई आस्तिक हो या नास्तिक, भगवान को मानने वाला हो या उसे अस्वीकार करने वाला। अणुव्रत कहता है-कोई भगवान से प्यार करे या न करे पर इन्सान से प्यार करे, मैत्री करे। वस्तुतः जो व्यक्ति इन्सान से प्यार, मैत्री करना नहीं जानता वह कभी भगवान से सच्चा प्यार नहीं कर सकता। कवि की चार पंक्तियां बहुत मार्मिक हैं-
क्या करेगा प्यार वह ईमान से,
क्या करेगा प्यार वह भगवान से।
जन्म लेकर गोद में इन्सान की,
कर सका न प्यार जो इन्सान से ।।
इतिहास का उजला अध्याय
संत श्री तुलसी ने मानवता की सेवा में अपने महिमामण्डित जीवन के अमूल्य क्षण समर्पित किए हैं।
भारत के स्वर्गीय राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने एक पुस्तक (लिविंग विथ ए परपज) लिखी। उसमें उन्होंने चौदह महापुरुषों को अपनी लेखनी का विषय बनाया है। उनमें से एक है अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य श्री तुलसी। चौदह महापुरुषों में से सम्प्रति विद्यमान एक मात्र श्री तुलसी हैं। उनके मानवतात्रायी अवदानों (अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान, जीवन विज्ञान) ने प्रबुद्ध चिन्तकों, दार्शनिकों एवं राजनेताओं के मस्तिष्क को आन्दोलित किया है।
अतर्यात्रा : एक महापुरुष की
किसी व्यक्ति की अन्तरंग साधना का सही मूल्याकंन करना कठिन कार्य है। पर उसके व्यवहार से यह अनुमान अवश्य लगाया जा सकता है कि वह किस गहराई तक पहुंचा हुआ है। अन्तर्यात्रा का साधन होता है-आत्मसंयम। वह जितना पुष्ट होता है, उतना ही यात्रा का पथ करता जाता है। उसका एक रूप है अप्रमाद-सत् कार्यों में संलग्नता।
गुरुदेवश्री का प्रातः ४.०० बजे से रात्रि के १०-११ बजे तक का बहुलांश समय प्रायः पठन-पाठन, प्रवचन, लेखन, जन-प्रतिबोध, समाज विकास, चिंतन आदि में संलग्न रहता है।
जैन दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान् एवं जमाने के तेरापंथ के आलोचक पं. दलसुखभाई मालवणिया ने कहा-आचार्यश्री को जब कभी देखें, उन्हें अप्रमत्त पाते हैं, कार्यव्यस्त पाते हैं। सक्रियता गुरुवर का जीवनमंत्र है, निठल्ले बैठना उन्हें पसंद ही नहीं है।
आत्मसंयम का पहला रूप है— सतत प्रसन्नता
गुरुदेवश्री एक धर्म-संघ के सर्वोच्च नेता हैं। इसके सिवा विभिन्न जनोपकारी प्रवृत्तियों का नेतृत्व भी उनके पास है। विभिन्न संघर्ष, कठिनाइयां उनके सामने आती हैं, फिर भी हम उन्हें आशावान और प्रसन्न मुद्रा में पाते हैं। उनके जीवन-वृत्त का पाठक इस बात से अनभिज्ञ नहीं रहता कि उनके जीवन में अंतरंग और बहिरंग कितनी उलझनें आई हैं, फिर भी जिस साहस, आनंद और धैर्य के साथ उन्होंने उनको झेला, वह उनकी साधना की निष्पत्ति है।
आत्मसंयम का दूसरा रुप है आचार-निष्ठा
जैन मुनि का आचार पंचमहाव्रतात्मक है। महाव्रत पांच हैं- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। यही मुनि का जीवन है। अहिंसा महाव्रत के पोषक जैन मुनि का एक नियम है-चलते समय बात न करना। पूज्यश्री पिलानी से विहार कर अगले गंतव्य की ओर जा रहे थे। वरिष्ठ उद्योगपति जुगलकिशोरजी बिड़ला भी साथ-साथ चल रहे थे। वे बात कर रहे थे। जहां पूज्यश्री को बोलना होता, पूज्यश्री रुक जाते, कुछ बोलकर आगे बढ़ जाते। बार-बार पूज्यश्री को रुकते देखकर बिड़लाजी ने पूछा- 'आपके पैरों में दर्द है क्या?
'नहीं।'
'तो आप रुकते क्यों हैं?'
'यह हमारा नियम है कि हम चलते हुए बात नहीं करते। जव बोलना होता है तब रुककर बोलते हैं।'