संबोधि

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाप्रज्ञ

संबोधि

कृष्ण, नील और कापोत-अप्रशस्त कोटि के ये तीनों रंग मनुष्य के विचारों पर बुरा प्रभाव डालते हैं तथा अरुण, पीला और सफेद-प्रशस्त कोटि के ये तीनों रंग मनुष्य के विचारों पर अच्छा प्रभाव डालते है।
ओरा दर्शन की प्रक्रिया
भौतिक रंगों की तरह ओरा के रंग भी सत्य है। आंखें अर्धनिमीलित रखें। इस प्रकार बंद करें कि नीचे की पलकों के नीचे देखा जा सके। फिर किसी स्वस्थ व्यक्ति को मंद प्रकाश में बैठाकर देखते रहें। कुछ समय बाद उसे ज्ञात होगा कि स्वस्थ व्यक्ति के शरीर से एक, दो इंच की दूरी तक कुछ कम्पन दीख रहे हैं। प्रतिदिन के अभ्यास से यह और स्पष्ट होता चला जाएगा। जो व्यक्ति ध्यानस्थ या सद्विचारशील है उसके मस्तिष्क के पीछे इसे देखा जा सकता है। इसी प्रकार अपनी अंगुलियों या हाथ की प्राण ओरा को भी देखा जा सकता है। हाथ या अंगुलि को काले गत्ते पर या बोर्ड पर रख, अधखुली पलकों से देखें। अभ्यास सधने पर उसकी 'ओरा' दीखने लग जाएगी।'
३०. उपकारापकारौ च, विपाकं वचनं तथा। 
      कुरुष्व धर्ममालम्ब्य, क्षमां पञ्चावलम्बनाम्।।
पांच कारणों से मुझे क्षमा का सेवन करना चाहिए। वे पांच ये हैं-
१. इसने मेरा उपकार किया है इसलिए इसके कथन या प्रवृत्ति पर मुझे क्रोध नहीं करना चाहिए। 
२. क्षमा नहीं रखने से अर्थात् क्रोध करने से मेरी आत्मा का अपकार-अहित होता है। 
३. क्रोध का परिणाम बड़ा दुःखद होता है। 
४. आगम की वाणी है कि क्रोध नहीं करना चाहिए। 
५. क्षमा मेरा धर्म है।
३१. आर्जवं वपुषो वाचो, मनसः सत्यमुच्यते । 
      अविसंवादयोगश्च, तत्र स्थापय मानसम् ।।
काया, वचन और मन की जो सरलता है, वह सत्य है। कथनी और करनी की जो समानता है, वह सत्य है। उस सत्य में तू मन को रमा।
'मनस्येकं वचस्येकं, कर्मण्येकं महात्मनाम् । 
मनस्यन्यद् वचस्यन्यत्, कर्मण्यन्यद् दुरात्मनाम् ।।'
- मन, वचन और कर्म में एकरूपता-यह महान् पुरुषों का लक्षण है, और भिन्नता साधारण पुरुषों का लक्षण है। साधक के लिए साधना का महान् सूत्र है कि वह जैसा कहे, वैसा करे और जैसा करे, वैसा ही कहे। अनेकरूपता साधक का धर्म नहीं होता। जिसमें भीतर और बाहर का एकत्व नहीं है, वह साधना के योग्य नहीं है।