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आत्मप्रकाश और अहिंसा का सन्देश देता निर्वाणोत्सव
संसार में अनेक प्रकार के पर्व मनाए जाते हैं। कुछ पर्व लौकिक होते हैं, तो कुछ लोकोत्तर। चाहे पर्व लौकिक हों या लोकोत्तर, उनके पीछे कोई न कोई ऐतिहासिक या आध्यात्मिक कारण अवश्य होता है, जिसके कारण वह परंपरा पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है और जनमानस उसे बड़े ही हर्षोल्लास से मनाता है। दीपावली पर्व जैन धर्म में भगवान महावीर के निर्वाण कल्याणक से जुड़ा हुआ है। भगवान महावीर का निर्वाण कार्तिक कृष्ण अमावस्या की अर्द्धरात्रि को हुआ। उस समय चारों ओर सघन अंधकार था। भगवान के अंतिम दर्शन के लिए हजारों श्रद्धालु पहुंचे, परंतु अंधकार के कारण दर्शन में कठिनाई हो रही थी। तब राजा हस्तिपाल ने घोषणा की कि घर-घर घी के दीपक जलाए जाएँ ताकि प्रकाश फैले और भक्तगण दर्शन कर सकें।
उस समय न बिजली का आविष्कार हुआ था और न ही मिट्टी के तेल का युग था। प्रत्येक घर में गायें होती थीं, और उनके घी से ही दीपक जलाकर अंधकार को दूर करने का प्रयास किया जाता था। वह एक सादा, संयमी और प्रकृति के निकट जीवन का युग था। वह युग मशीनरी युग नहीं था; लोगों की आवश्यकताएँ भी सीमित थीं। सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं किया जाता था, और सहज ही रात्रिभोजन का परिहार हो जाता था। विवाह, व्यापार, सभी कार्य सूर्यास्त से पहले सम्पन्न हो जाते थे।
हमें भी समय देखकर चलना चाहिए। वर्तमान युग मशीनरी का युग है। दिन-रात बिजली जलती रहती है, इसलिए अनावश्यक दीप प्रज्वलन से बचना उचित है। दीपक के अत्यधिक प्रयोग से तैजस काय और वायुकाय की हिंसा होती है। कई बार दीपक में मच्छर या अन्य सूक्ष्म जीव मर जाते हैं, जिससे त्रसकाय की हिंसा भी संभव है। जैन धर्म का मूल तत्व अहिंसा, संयम और तप है। अतः भगवान के निर्वाण दिवस पर दीपक जलाने की परंपरा को आत्मिक प्रकाश के प्रतीक के रूप में समझना चाहिए, बाहरी आडंबर के रूप में नहीं। इस दिन जप, स्वाध्याय, ध्यान और तप के माध्यम से आत्मशुद्धि का अभ्यास करना चाहिए, जिससे कर्मों की निर्जरा हो सके और हिंसा से बचा जा सके।
आजकल दीपावली पर पटाखों के उपयोग का चलन बढ़ गया है। इसके कारण प्रदूषण का स्तर इतना बढ़ जाता है कि दमा और श्वास जैसी बीमारियाँ विकराल रूप ले लेती हैं। जगह-जगह पटाखों के कारण आग और दुर्घटनाएँ भी बढ़ जाती हैं। धन और उल्लास के नाम पर जब हिंसा, प्रदूषण और व्यसन का रूप सामने आता है, तब पर्व का वास्तविक संदेश खो जाता है। व्यक्ति जब जुए, शराब या दिखावे में डूब जाता है, तो उसकी आत्मा के साथ-साथ अर्थ, स्वास्थ्य और प्रतिष्ठा — तीनों का पतन होता है। इसलिए हमें दीपावली के पावन अवसर पर बाहरी सफाई के साथ-साथ अपनी आत्मा की सफाई पर भी ध्यान देना चाहिए। उपवास, जप, ध्यान, पौषध और प्रतिक्रमण के माध्यम से आत्मशुद्धि का प्रयास करना चाहिए। तभी यह पर्व अपने सच्चे अर्थों में ‘निर्वाण पर्व’ कहलाने योग्य बनेगा।