प्रज्ञा के साथ जुड़ जाए राग द्वेष मुक्तता : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

कोबा, गांधीनगर। 06 अक्टूबर, 2025

प्रज्ञा के साथ जुड़ जाए राग द्वेष मुक्तता : आचार्यश्री महाश्रमण

जैन श्वेतांबर तेरापंथ धर्म संघ के एकादशमाधिशास्ता, तीर्थंकर के प्रतिनिधि, महातपस्वी युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आयारो आगम के माध्यम से अमृत देशना प्रदान करते हुए कहा कि दुनिया में प्रज्ञावान पुरुष भी मिल सकते हैं और अनात्मप्रज्ञ व्यक्ति भी हो सकते हैं। जिनमें प्रज्ञा का अच्छा जागरण हो गया है, संयम के प्रति निष्ठा पुष्ट हो गई है, ऐसे साधु-साध्वियां संयम का अच्छा पालन करने में सफल हो सकते हैं। जिनमें प्रज्ञा नहीं, विवेक नहीं और संयम के प्रति निष्ठा नहीं, जागरूकता नहीं, ऐसे साधु भी अवसाद को प्राप्त हो सकते हैं, कुछ अंशों में चित्त समाधि से रहित रह सकते हैं। प्रज्ञा एक ऐसा तत्त्व है, जिसे हम ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के रूप में संबद्ध देख सकते हैं। अतीन्द्रिय ज्ञान जैसे अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान भी ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होता है। मात्र एक केवल ज्ञान ऐसा है, जो पांच ज्ञानों में ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से प्राप्त होता है। क्षयोपशम और क्षय का मार्ग एक ही है — मंजिल तक पहुंच गए तो क्षय, और मार्ग में रह गए तो क्षयोपशम है। अपूर्णता क्षयोपशम है और पूर्णता क्षय है। प्रज्ञा के साथ राग-द्वेष मुक्तता, विवेक चेतना जुड़ जाए और चारित्र मोह का क्षयोपशम जुड़ जाए तो संयम जीवन का अच्छा पालन हो सकता है।
आज आश्विन शुक्ला चतुर्दशी है और प्रज्ञा पुरुष श्रीमद् जयाचार्य का जन्म दिवस है। जैन श्वेतांबर तेरापंथ के आद्य आचार्य आचार्यश्री भिक्षु हुए। उनका जीवनकाल लगभग 77-78 वर्षों का रहा। आचार्य भिक्षु का महाप्रयाण भाद्रव शुक्ला त्रयोदशी वि.सं. 1860 को हुआ। उनके देहावसान के लगभग एक माह पश्चात् आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को श्रीमद् जयाचार्य प्रकट हुए। 10 वर्ष की आयु पूर्ण होने से पूर्व ही वे मुनि बन गए। आगे चलकर अग्रणी और युवाचार्य बने तथा लगभग 48 वर्ष की उम्र में वे आचार्य बने। वे चतुर्थ आचार्य बने। उन्हें ‘प्रज्ञा पुरुष’ कहा गया है। उनके ग्रंथों को पढ़ने से लगता है कि उनमें श्रुत प्रगाढ़ मात्रा में था, बहुश्रुत थे, ज्ञान में गहराई थी और प्रखर तार्किक क्षमता थी। उनका राजस्थानी भाषा में साहित्य उपलब्ध होता है। सबसे बड़े आगम ‘भगवती’ का राजस्थानी भाषा में उन्होंने ‘भगवती जोड़’ ग्रंथ लिखा है, जो राग-रागिनियों से युक्त है। इसके अलावा उन्होंने तत्त्व, सिद्धांत पर अनेक ग्रंथ, भक्ति पर चौबीसी, आराधना, प्रश्नोत्तर तत्त्व बोध, झीणी चर्चा आदि ग्रंथ रचे थे। वे हमारे धर्म संघ को सुंदर, व्यवस्थित अनुशासन प्रदान करने वाले आचार्य थे।
गुरु के अनुशासन के प्रति जागरूक रहना चाहिए। जो भी जिनके अधीनत्व में हो, उसका अनुशासन पालन करने का प्रयास करना चाहिए। दूसरों पर अनुशासन करने से पहले स्वयं पर ही अनुशासन करने का प्रयास करना चाहिए। श्रीमद् जयाचार्य अनुशासन करने वाले भी थे और व्यवस्था में कुछ परिवर्तन करने वाले भी थे। मंगल प्रवचन से पूर्व साध्वीवर्या श्री संबुद्धयशाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि हमें अनुकूल या प्रतिकूल जैसी भी परिस्थितियां मिलें, उनमें शांत रहना चाहिए। कुछ बातों को जीवन में उतार कर हम शांत रह सकते हैं। पहली बात है कि हमें अपने स्वभाव का परिष्कार करना चाहिए। अपनी कमियों को पहचान कर उन्हें दूर करना होगा। दूसरा — हमें अपने जीवन में प्रतिक्रिया-विरति की साधना करनी चाहिए। तीसरा — हमें हमेशा सकारात्मक और वास्तविक चिंतन करना चाहिए। इनसे हम अपने जीवन में शांति प्राप्त कर सकते हैं।
मंगल प्रवचन के उपरांत चतुर्दशी के संदर्भ में हाजरी का उपक्रम संपादित हुआ। आचार्यवर ने नवदीक्षित साधु-साध्वियों व समणियों को मंगल प्रेरणा प्रदान की। आचार्यश्री ने बोथरा परिवार को आध्यात्मिक संबल प्रदान किया। अणुव्रत लेखक सम्मेलन में प्रसिद्ध लेखक कुमारपालभाई देसाई ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। अनुल लिमिटेड के मैनेजिंग डायरेक्टर संकोटलालभाई ने अपनी अभिव्यक्ति दी। आचार्यप्रवर ने मंगल पाथेय प्रदान किया। विजयनगर, बैंगलोर ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने अपनी भावपूर्ण प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।