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जन-जन की आस्था के आधार थे आचार्य श्री तुलसी
आचार्य श्री तुलसी बचपन से ही श्रमशील और अध्ययनप्रिय थे। मात्र 11 वर्ष की अवस्था में उन्होंने दीक्षा ग्रहण की और केवल 16 वर्ष की आयु में एक कुशल अध्यापक बन गए। उनके पास अध्ययन करने वालों के लिए अनुशासन सर्वोपरि था। स्वयं किशोर अवस्था में होते हुए भी उनका परिश्रम इतना प्रभावी था कि उनके सभी शिष्य प्रकांड विद्वान बन गए।
पूज्य कालूगणी के हृदय में आपके प्रति विशेष स्थान था, और मात्र 22 वर्ष की अवस्था में उन्होंने आपको उत्तराधिकारी घोषित किया। मुनि तुलसी आचार्य तुलसी बन गए। आपके दूरदर्शी चिंतन और युगानुकूल आयामों के कारण आज तेरापंथ जन-जन का पंथ बन गया।
आपके द्वारा प्रतिपादित अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान और जीवन-विज्ञान जैसे आयाम हर जाति, संप्रदाय और वर्ग के लोगों के लिए उपयोगी सिद्ध हुए। देश के अनेक प्रमुख धार्मिक, राजनीतिक, औद्योगिक और बौद्धिक व्यक्तित्वों का आपसे गहरा संपर्क रहा।
आपने लंबी-लंबी पदयात्राएँ कर लोगों को जीवन जीने की कला सिखाई, उन्हें व्यसनमुक्त बनाया और व्यक्ति, परिवार तथा समाज को सशक्त किया। बाल विवाह, मृत्युभोज और घूंघट प्रथा के उन्मूलन में आपके प्रयासों से न केवल तेरापंथ समाज, बल्कि अन्य समाजों में भी व्यापक प्रभाव पड़ा। महिला शिक्षा के क्षेत्र में जो प्रगति हुई, वह आपके उपदेशों का ही प्रतिफल है।
जैन समाज की एकता के लिए आपने अथक प्रयास किए, जिसके परिणामस्वरूप आज अनेक कार्यक्रमों में सभी संप्रदायों की समान उपस्थिति देखने को मिलती है। इससे जैन समाज का वर्चस्व अनेक स्तरों पर बढ़ा है।
आचार्य श्री तुलसी एक संप्रदाय विशेष के आचार्य होते हुए भी असंप्रदायिक विचारधारा के धनी थे।
इसी कारण वे जन-जन की आस्था के आधार बने। वे युग की नब्ज को भली-भांति जानते थे, इसलिए युगप्रधान आचार्य कहलाए।
आज के इस पद-लिप्सु संसार में उन्होंने अपने आचार्य पद का विसर्जन कर संपूर्ण समाज को त्याग और बोध का अद्वितीय पाठ दिया।
आपके 112वें जन्मदिवस पर शत-शत नमन करते हुए यही मंगलकामना करते हैं कि अज्ञात लोक से भी आप हमें साधना के पथ पर प्रेरणा और मार्गदर्शन प्रदान करते रहें।