गुरुवाणी/ केन्द्र
भय की स्थिति में भी रहे अभय का भाव : आचार्यश्री महाश्रमण
सब जीवों को अभय प्रदान करने वाले युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आयारो आगम के माध्यम से अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि साधु विशेष साधना करता है, श्मशान में जाकर प्रतिमा की आराधना करता है। यदि वहां भयंकर दृश्य भी दिखाई दें, तो भी साधु को भयमुक्त रहने का प्रयास करना चाहिए। आचार्यश्री ने कहा कि हमारे भीतर भय की संज्ञा भी होती है। जैन वाङ्मय में चार संज्ञाएं बताई गई हैं, आगम में दस संज्ञाओं का भी उल्लेख मिलता है, जिनमें एक है — भय संज्ञा। सबका भय एक समान नहीं होता; कुछ व्यक्ति अभय भी होते हैं। अभय का अर्थ है वीरता, जबकि डरना कमजोरी का प्रतीक है। व्यक्ति को यथासंभव अभय भाव बनाए रखना चाहिए। कोई भी परिस्थिति आ जाए, परंतु झटपट भयभीत न हो। दीपक समान अभय का प्रकाश हमारे जीवन में सदैव रहना चाहिए। अभय की साधना एक उच्च उपलब्धि है।
उन्होंने आगे कहा कि मनुष्य को बीमारी, मृत्यु, बदनामी, अपमान या प्राणियों से भय लग सकता है। इन सभी भय की स्थितियों में भी यदि व्यक्ति अभय भाव रखे, तो यह अत्यंत ऊंची साधना मानी जाएगी। भय सात्विक और असात्विक दोनों प्रकार का होता है। एक सीमा तक सात्विक भय हितकारी भी हो सकता है, जैसे शिष्य को गुरु का भय, समाज का भय, या पाप का भय — ये सभी सात्विक भय हैं। आचार्यश्री ने बताया कि मोहनीय कर्म के परिवार में 28 सदस्य हैं, जिनमें एक है भय। मोहनीय कर्म हमारी चेतना को प्रभावित करता है, जिससे भय की संज्ञा उत्पन्न होती है। कभी-कभी किसी विशेष वस्तु या व्यक्ति को देखकर भी भय पैदा हो जाता है; ऐसी स्थिति में अभय का भाव बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। प्रेक्षाध्यान साधना में ‘अभय अनुप्रेक्षा’ का प्रयोग इसी उद्देश्य से किया जाता है।
कुछ व्यक्तियों में सहज रूप से अभय का भाव होता है, परंतु अभय के साथ विनय भी आवश्यक है। कुछ विशिष्ट व्यक्तित्व ऐसे होते हैं, जिनके प्रति श्रद्धा होने पर उनका नाम लेने मात्र से भी मनोबल और रक्षा का भाव जाग्रत होता है — जैसे ऊँ भिक्षु, भिक्खू स्याम का जप। जब भीतर पूर्ण अभय का भाव जाग्रत हो जाए, तो वह अत्यंत ऊँची साधना की अवस्था है। किंतु सामान्य स्थिति में भी भय आने पर व्यक्ति को अभय भाव बनाए रखना चाहिए। मंगल प्रवचन से पूर्व साध्वीवर्याजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि मन की गति सबसे तीव्र होती है। जो व्यक्ति मन को नियंत्रित कर लेता है, वह स्वयं को जीत लेता है। मनुष्य चैतन्य प्राणी है, उसकी चिंतनशीलता विकसित है। सांसारिक जीवन में सुख-दुःख दोनों आते हैं, परंतु कठिनाई की स्थिति में नकारात्मक चिंतन से बचना और धैर्य बनाए रखना चाहिए।
प्रवचन के पश्चात् पूज्य गुरुदेव ने सघन साधना शिविर के शिविरार्थियों को अपनी जिज्ञासाएँ प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान किया और उनका समाधान किया। आचार्य प्रवर की मंगल सन्निधि में अणुविभा द्वारा वर्ष 2025 का अणुव्रत गौरव सम्मान भीखमचंद नखत को प्रदान किया गया। इस अवसर पर अणुविभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रताप सिंह दूगड़ और सम्मानित भीखमचंद नखत ने अपने विचार व्यक्त किए। इस कार्यक्रम का संचालन अणुविभा के महामंत्री मनोज सिंघवी ने किया।