स्वाध्याय
श्रमण महावीर
भाषा सम्पर्क का सर्वाधिक सशक्त माध्यम है। मन को मन से पकड़ने वाले लोग बहुत कम होते हैं। संकेत की शक्ति सीमित है। मनुष्य बोलकर अपनी बात दूसरों तक पहुंचाता है। भाषा का प्रयोजन ही है अपने भीतर के जगत् को दूसरे के भीतरी जगत् से मिला देना। भाषा एक उपयोगिता है। अपने शैशव में उपयोगिता केवल उपयोगिता होती है। यौवन की दहलीज पर पैर रखते ही वह अलंकार बन जाती है। प्राण-शक्ति प्रखर होती है, सौन्दर्य सहज होता है, तब अलंकार की अपेक्षा नहीं होती। प्राण की ज्योति मन्द होने लगती है तब अलंकार की आकांक्षा प्रबल होना चाहती है। युग ऐसा आया कि भाषा भी अलंकार बन गई। जो सम्पर्क-सूत्र थी, वह बड़प्पन का मानदंड बन गई। पंडित लोग उस संस्कृत में बोलते और लिखते थे जो जनता की भाषा नहीं थी, जनता के लिए अगम्य थी। परिणाम यह हुआ कि दो वर्ग बन गए-एक पंडित की भाषा बोलने वालों का और दूसरा जनता की भाषा बोलने वालों का। पंडितों की भाषा असाधारण हो गई और जनता की भाषा साधारण मानी जाने लगी।
महावीर का लक्ष्य था-सबको जगाना। सबको जगाने के लिए जरूरी था सबके साथ संपर्क साधना। पंडिताई की भाषा में ऐसा होना संभव नहीं था। इसलिए भगवान् ने जन-भाषा को सम्पर्क का माध्यम बनाया।
प्राकृत का अर्थ है-प्रकृति की भाषा, जनता की भाषा। भगवान् जनता की भाषा में बोले और-जनता के लिए बोले इसलिए वे जनता के हो गए। उनका संदेश बालकों, स्त्रियों, मंदमतियों और मूर्खी तक पहुंचा। उन सबको उससे आलोक मिला।
महावीर इश्वरीय संदेश लेकर नहीं आए थे। उनका संदेश अपनी साधना से प्राप्त अनुभवों का संदेश था। इसलिए उसे जनता की भाषा में रखने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं थी। उस समय कुछ पंडित जनता को ईश्वरीय संदेश देने की घोषणा कर रहे थे। ईश्वरीय सन्देश भला जनता की भाषा में कैसे हो सकता है? वह उस भाषा में होना चाहिए जिसे जनता न समझ सके। यदि उसे जनता समझ ले तो वह एक वर्ग की धरोहर कैसे बन जाए? महावीर ने उस एकाधिकार को भंग कर दिया। दर्शन के महान् सत्य जनता की भाषा में प्रस्तुत हुए। धर्म सर्व-सुलभ हो गया। स्त्री और शूद्र नहीं पढ़ सकते- इस आदेश द्वारा स्त्री और शूद्रों को धर्म-ग्रंथ पढ़ने से वंचित किया जा रहा था। महावीर के उदार दृष्टिकोण से उन्हें धर्मग्रन्थ पढ़ने का पुनः अधिकार मिल गया।
'भाषा का आग्रह हमें कठिनाई से नहीं उबार सकता'- महावीर का यह स्वर आज भी भाषावाद के लिए महान् चुनौती है।
७. करुणा और शाकाहार
श्रमण आर्द्रकुमार एकदण्डी परिव्राजक के प्रश्नों का उत्तर दे महावीर की दिशा में आगे बढ़ा। इतने में हस्ती-तापस ने उसे रोककर कहा- 'आर्द्रकुमार ! तुमने इन परिव्राजकों को निरुत्तर कर बहुत अच्छा काम किया। ये लोग कंद, मूल और फल का भोजन करते हैं। जीवन-निर्वाह के लिए असंख्य जीवों की हत्या करते हैं। हम ऐसा नहीं करते।'
'फिर आप जीवन-निर्वाह कैसे करते हैं?'
'हम बाण से एक हाथी को मार लेते हैं। उससे लम्बे समय तक जीवन-निर्वाह हो जाता है।'
'कंद-मूल के भोजन से इसे अच्छा मानने का आधार क्या है?'
'इसकी अच्छाई का आधार अल्प-बहुत्व की मीमांसा है। एकदण्डी परिव्राजक असंख्य जीवों को मारकर एक दिन भोजन करते हैं, जबकि हम एक जीव को मारकर बहुत दिनों तक भोजन कर लेते हैं। वे बहुत हिंसा करते हैं, हम कम हिंसा करते हैं। 'मांसाहार के समर्थन में दिए जाने वाले इस तर्क की आयु ढाई हजार वर्ष पुरानी तो अवश्य ही है। इस तर्क की शरण गृहस्थ ही नहीं, मांसाहारी संन्यासी भी लेते थे। महावीर ने इस तर्क को अस्वीकार कर मांसाहार का प्रबल विरोध किया।'
उस विरोध के पीछे कोई वाद नहीं, किन्तु करुणा का अजस्र प्रवाह था। उनके अन्तःकरण में प्राणी-मात्र के प्रति करुणा प्रवाहित हो रही थी। पशु-पक्षी और वनस्पति आदि सूक्ष्म जीवों के साथ उनका उतना ही प्रेम था, जितना की मनुष्य के साथ। उनके प्रेम में किसी भी प्राणी के वध का समर्थन करने का कोई अवकाश नहीं था। उन्हें प्रिय थीं अहिंसा और केवल अहिंसा, किन्तु मानव का जगत् उनकी भावना को कैसे स्वीकार कर लेता? आखिर यह जीवन का प्रश्न था। जीना है तो खाना है। खाए बिना जीवन चल नहीं सकता। 'अन्नं वै प्राणाः' अन्न ही प्राण है, यह धारणा समाजमान्य हो चुकी थी। भगवान् ने भोजन की समस्या पर दो दृष्टिकोणों से विचार किया। एक दृष्टिकोण अनिवार्यता का था और दूसरा संकल्प का। भगवान् ने असम्भव तत्त्व का प्रतिपादन नहीं किया।