संबोधि

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाप्रज्ञ

संबोधि

मेघ की आलोकित आत्मा अंत में कृतज्ञ के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करती है, जिसका एक-एक शब्द श्रद्धा से स्पन्दित है और भावों की विशुद्धि लिए हुए है।
कृतज्ञता के स्वर
मेघः प्राह
३९. सर्वज्ञोऽसि सर्वदर्शी, स्थितात्मा धृतिमानसि।
        अनायुरभयो ग्रन्थादतीतोऽसि भवान्तकृत्॥
मेघ ने कहा-आर्य ! आप सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं, स्थितात्मा हैं, धैर्यवान् हैं, अमर हैं, अभय हैं, राग-द्वेष की ग्रंथियों से रहित हैं और संसार का अंत करने वाले हैं।
४०. पश्यतामुत्तमं चक्षुर्सानिनां ज्ञानमुत्तमम्। 
      तिष्ठतां स्थिरभावोऽसि, गच्छतां गतिरुत्तमा।
आप देखने वालों के लिए उत्तम चक्षु हैं, ज्ञानियों के लिए उत्तम ज्ञान हैं, ठहरने वालों के लिए उत्तम स्थान हैं और चलने वालों के लिए उत्तम गति हैं।
४१. शरणं चास्यऽबन्धूनां, प्रतिष्ठा चलचेतसाम्। 
        पोतश्चासि तितीषूणां, श्वासः प्राणभृतां महान्॥
आप अशरणों के शरण हैं, अस्थिर चित्त वाले मनुष्यों के लिए प्रतिष्ठान हैं, संसार से पार होने वालों के लिए नौका हैं और प्राणधारियों के लिए आप श्वास हैं।
४२. तीर्थनाथ ! त्वया तीर्थमिदमस्ति प्रवर्तितम्। 
      स्वयंसम्बुद्ध ! सम्बुद्ध्या, बोधितं सकलं जगत्॥
हे तीर्थनाथ ! आपने इस चतुर्विध संघ का प्रवर्तन किया है। हे स्वयंसंबुद्ध ! आपने अपने ज्ञान से समस्त संसार को जागृत किया है।
४३. अहिंसाराधनां कृत्वा, जातोऽसि पुरुषोत्तमः। 
       जातः पुरुषसिंहोऽसि, भयमुत्सार्य सर्वथा॥
भगवन् ! आप अहिंसा की आराधना कर पुरुषोत्तम बने हैं, भय को सर्वथा छोड़ पुरुषों में सिंह के समान पराक्रमी बने हैं।
४४. पुरुषेषु पुण्डरीकः, निर्लेपो जातवानसि। 
      पुरुषेषु गन्धहस्ती, जातोऽसि गुणसम्पदा॥
निर्लेप होने के कारण आप पुरुषों में पुण्डरीक कमल के समान हैं। गुण-संपदा से समृद्ध होने के कारण आप पुरुषों में गंधहस्ती के समान हैं।