
श्रमण महावीर
जीवनवृत्त : कुछ चित्र, कुछ रेखाएँ
मैं अनुभव करता हूँ कि यह मेरा जन्म हिंसा का प्रायश्चित्त करने के लिए ही हुआ है। मेरी सारी रुचि, सारी श्रद्धा, सारी भावना अहिंसा की आराधना में लग रही है। उसके लिए मैं जो कुछ भी कर सकता हूँ, करूँगा। मेरे प्राण तड़प रहे हैं उसकी सिद्धि के लिए। मैं चाहता हूँ कि वह दिन शीघ्र आए जिस दिन मैं अहिंसा से अभिन्न हो जाऊँ, किसी जीव को कष्ट न पहुँचाऊँ। आज क्या हो रहा है? हम बड़े लोग हैं छोटे लोगों के प्रति सद्व्यवहार नहीं करते। उनकी विवशता का पूरा-पूरा लाभ उठाते हैं। पशु की तरह उनका क्रय-विक्रय करते हैं। उनके साथ कठोरता बरतते हैं। मुझे लगता है जैसे हमने मानवीय एकता को समझा ही नहीं। छोटा-सा अपराध होने पर कठोर दंड दे देते हैं। नाना प्रकार की यातनाएँ देना छोटी बात है। अवयवों को काट डालना भी हमारे लिए बड़ी बात नहीं है। मनुष्य के प्रति हमारा व्यवहार ऐसा है, तब पशुओं के प्रति अच्छे होने की आशा कैसे की जा सकती है? मैं इस स्थिति को बदलना चाहता हूँ। यह डंडे के बल पर नहीं बदली जा सकती है? यह बदली जा सकती है हृदय-परिवर्तन के द्वारा। यह बदली जा सकती है प्रेम की व्यापकता के द्वारा। इसके लिए मुझे हर आत्मा के साथ आत्मीय संबंध स्थापित करना होगा। समता की वेदी पर अपने अहं का विसर्जन करना होगा। यह कार्य माँगता है बहुत बड़ा बलिदान, बहुत बड़ी साधना और बहुत बड़ा त्याग।’
माता-पिता की समाधि-मृत्यु
महावीर के मन में अचानक उदासी छा गई, जैसे उज्ज्वल प्रकार के बाद नीले नभ में अकस्मात् रात उतर आती है। वे कारण की खोज में लग गए। वह पूर्वसूचना थी महाराज सिद्धार्थ और देवी त्रिशला के देहत्याग की। कुमार के मन में अंतःप्रेरणा जागी। वे तत्काल सिद्धार्थ के निसद्या-कक्ष में गए। वहाँ सिद्धार्थ और त्रिशलाµदोनों विचार-विमर्श कर रहे थे। कुमार ने देखा, वे किसी गंभीर विषय पर बात कर रहे हैं इसलिए उनके पैर द्वार पर ही रुक गए। सिद्धार्थ ने कुमार को देखा और अपने पास बुला लिया। वे बोले, ‘कुमार! तुम ठीक समय पर आए हो। हमें तुम्हारे परामर्श की जरूरत थी। हम तुम्हें बुलाने वाले ही थे।’
कुमार ने प्रणाम कर कहा, ‘मैं आपकी कृपा के लिए आभारी हूँ। आप आदेश दें, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?’
‘कुमार! तुम देख रहे हो, हमारी अवस्था परिपक्व हो गई है। पता नहीं कब मृत्यु का आमंत्रण आ जाए। वह हमें निमंत्रण दे, इससे पहले हम उसे निमंत्रण दें, क्या यह अच्छा नहीं होगा? श्रमण-परंपरा ने मृत्यु को आमंत्रित करने में सदा शौर्य का परिचय दिया है। भगवान् पार्श्व ने मृत्यु की तैयारी करने का पाठ पढ़ाया है। हम अनुभव करते हैं कि उस पाठ को क्रियान्वित करने का उचित अवसर हमारे सामने उपस्थित है।’
कुमार का मन इस आकस्मिक चर्चा से द्रवित हो गया। माता-पिता का वियोग उनके लिए असह्य था। वे बोले, ‘पिताश्री! इस प्रकार की बात सुनना मुझे पसंद नहीं है।’
‘कुमार! यह पसंद और नापसंद का प्रश्न नहीं है। यह प्रश्न है यथार्थ का। जो होना है, वह होगा ही। उसको रोका नहीं जा सकता। फिर उसे नकारने का अर्थ क्या होगा?’
‘पिताश्री! इस सत्य को मैं जानता हूँ। पर सत्य का सूर्य क्या मोह के बादलों से आच्छन्न नहीं होता? मैं आपकी मृत्यु का नाम भी सुनना नहीं चाहता। फिर मैं उसकी तैयारी का परामर्श कैसे दे सकता हूँ?’
‘कुमार! तुम तत्त्वदर्शी हो, सत्य के गवेषक हो, अभय हो, सब कुछ हो। पर पितृस्नेह और मातृस्नेह से मुक्त नहीं हो। क्या इस दुर्बलता से ऊपर नहीं उठना है?’
‘पिताश्री! मैं आप और माँ के स्नेह से अभिभूत हूँ। इसे आप दुर्बलता समझें या कुछ भी समझें।’
सिद्धार्थ ने वार्ता को मोड़ देते हुए कहा, ‘क्या तुम नहीं चाहते कि हमारी समाधि-मृत्यु हो?’
‘यह कैसे हो सकता है?’
‘क्या इसके लिए हमें शरीर और मन को पूर्णरूपेण तैयार नहीं करना चाहिए।’
कुमार ने साहस बटोरकर कहा, ‘अवश्य करना चाहिए।’
‘इस तैयारी में तुम सहयोगी बनोगे?’
‘आपकी प्रबल इच्छा है, वह कार्य मुझे करना ही होगा।’
(क्रमशः)