साँसों का इकतारा

स्वाध्याय

साँसों का इकतारा

साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा

(23)

अगम तुम देवों से अमिताभ!
बताओ हो कैसे पहचान
आंज दो आँखों में आलोक
रहूँगी फिर न कभी अनजान॥

देख प्राणों की गहरी प्यास
स्नेह का दरिया देते खोल
सत्य की जिज्ञासा हो काश!
मौन भी सब कुछ जाता बोल
तिमिर में डूबा जब नरलोक
उगाया तुमने स्वर्ण विहान॥

हुआ विपदाओं से जग भीत
उठा मन में करुणा का ज्वार
सिखाने जीवन का संगीत
सुनाई अणुव्रत की झंकार
गया वह सात समंदर पार
चलाया तुमने जो अभियान॥

भुजाओं पर पौरुष का मंत्र
सुपावन चरण-युगल गतिमान
सघन संकल्पशक्‍ति का तंत्र
शब्द भी बन जाता आह्वान
फले हर सपना अपने-आप
आज दो ऐसा कुछ वरदान॥

(24)

जिस मौसम ने सिरजा तुमको उसको नमन हमारा है।
सृजन चेतना से तुमने सबका व्यक्‍तित्व निखारा है॥

फूलों की घाटी में देखी वह मुस्कान तुम्हारी है
सदा समर्पित करता युग अपनी हर साध कुंवारी है
सोते और जागते हर पल हमने तुम्हें निहारा है॥

मांझी का जीवन निर्भर है डाँड और पतवारों पर
उपवन की शोभा निर्भर बासंती विमल बहारों पर
मानवता के आलम्बन तुम तुमने उसे उबारा है॥

गीतों की हर थिरकन में तुम स्वयं गीत बन गाते हो
बंजर भू उर्वर होती जब करुणा रस बरसाते हो
युग नयनों के दर्पण में जो वह प्रतिबिम्ब तुम्हारा है॥

परस तुम्हारा जब हो जाता दीपक जलता बिन बाती
तुम्हें देखकर मन-सागर की सोई लहरें इतराती
वह अनुपम व्यक्‍तित्व तुम्हारा सचमुच अजब नजारा है॥

चरण तुम्हारे टिके जहाँ पर पतझर भी ॠतुराज बने
तुम्हें देखकर जनम रहे हैं आँखों में नूतन सपने
पल-पल गीत तुम्हारे गाता साँसों का इकतारा है॥

(क्रमश:)