वैराग्य से परिपूर्ण साध्वी धैर्यप्रभाजी

वैराग्य से परिपूर्ण साध्वी धैर्यप्रभाजी

साध्वी धैर्यप्रभाजी की जब भी स्मृति करती हूं तो सर्व प्रथम चैन्नई की पुष्पलता अशोक बोहरा की छवि उभर कर सामने आती है। कितनी खुशमिजाज, व्यवहार, कुशल, संस्कारित और 'अतिथि देवो भव:' उक्ति को सार्थक करती हुई विशिष्ट महिला थी। जब उनकी ज्येष्ठ पुत्री शीतल ने पारमार्थिक शिक्षण संस्था में प्रवेश किया, तब पुष्पलताजी से परिचय हुआ। धीरे-धीरे मेरे संसारपक्षीय परिवार का भी उनके परिवार से संपर्क बढ़ गया। जब भी हमारा चेन्नई जाना होता तो अशोक जी के घर रात रुकते और वे जब मुंबई आते तो हमारे यहां ठहरते।
सन् 2015 में जब हम चातुर्मास से पूर्व चैन्नई में विचरण कर रहे थे उस वक्त नेपाल में भूकम्प आया। उस वक्त गुरुदेव काठमांडों में थे और साध्वीप्रमुखा श्री कनकप्रभाजी वीरगंज (संभवत:) में विराज रहे थे। भूकम्प के समाचार सुन हमने पुष्पलताजी से पूछा कि साध्वी सिद्धार्थप्रभा जी कैसे हैं? कहां हैं? गुरुदेव के साथ या साध्वीप्रमुखाश्री जी के साथ? तब उन्होंने कहा- पता नहीं? मैंने कहा आप तो वहां से समाचार ले सकते हो। उन्होंने कहा गुरुदेव की कृपा से वो ठीक ही होंगे। मुझे क्या चिंता? एक क्षण के लिए मेरे मन में आया कि ये कैसी मां है, जो बेटी के समाचार के लिए चिंतित भी नहीं है। पर फिर ऐसा लगा कि धन्य है ऐसे श्रद्धानिष्ठ माता-पिता जो अपनी बेटी को गुरुचरणों में सौंप कर निश्चिंत हो गए।
परमपूज्य गुरुदेव ने महत्ती कृपा कर चैन्नई चातुर्मास में अशोक बोहरा एण्ड फेमिली को दीक्षा प्रदान की। तब से मन में ललक, इच्छा थी कि मैं जल्दी से जल्द मुनि अनिकेत कुमारजी और साध्वी धैर्यप्रभाजी के दर्शन करूं। मुनि श्री अनिकेत कुमार जी को तो नहीं देख सकी पर साध्वी धैर्यप्रभाजी से मुंबई चातुर्मास में मिलने का और कुछ दिन आस-पास रहने का भी अवसर प्राप्त हुआ। उनकी कुछ चर्यागत सोच से थोड़ा आश्चर्य भी हुआ। पहले तो उनका अद्भुत वर्षीतप जिसमें उपवास-एकासन का क्रम, फिर कुछ दिन उपवास-नींवी का क्रम और फिर उपवास-आयंबिल का क्रम चला।
उनके चिन्तन की बात करूं तो किसी भी वस्तु को मांगकर नहीं लेना। स्वावलंबन का जीवन जीते थे। यहां तक कि नन्दनवन (मुंबई चातुर्मास) में तो अपना लोच भी उन्होंने स्वयं ही किया। जब मुझे ज्ञात हुआ कि वे लोच कर रहे हैं तो मैं भी कुछ सहयोग करने के लिए पहुंची पर देखा कि वो तो साध्वी सिद्धार्थप्रभाजी से भी सहयोग नहीं ले रहे थे। पर उनके कुछ अवशेष केश लेने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ।
साध्वी धैर्यप्रभाजी में आगम वाचन की उत्कृष्ट इच्छा देखी। नन्दनवन में उत्तराध्ययन आगम आसानी से उपलब्ध नहीं हो रहा था। मेरे नेश्राय में एक प्रति थी। जब उन्हें पता चला कि मेरे पास उत्तराध्ययन है तो एक दिन उन्होंने मुझे निवदेन किया कि क्या मैं यह आगम ले सकती हूं? तब मैंने उन्हें जगह बता दी कि यहां से जब भी चाहो तब ले सकते हो और यथास्थान रख देना। मैं कक्ष में रहती नहीं रहती पर कक्ष में जो भी होता वे उनको सूचित करते और कहते या मौन में व्यक्त करते कि साध्वी दीप्तियशाजी से मेरी आज्ञा ली हुई है।
नन्दन वन में कुछ दिनों तक हमारी गोचरी साथ में थी। उनका जब पारणा होता तो कभी-कभी वे गोचरी करने के साथ चलते। जब उनके तपस्या के अनुरूप द्रव्य प्राप्त होता तो वे कितनी बार मेरे प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते। मैं कहती ये तो कोई खास बात नहीं पर वे फिर भी व्यक्त करते रहते।
ऐसा लगता है कि उन्होंने अपने जीवन में वैराग्य और संयम का पुष्प खिलाया और तप की लता के सहारे चलकर आत्मिक विकास किया। मैंने कभी नहीं सोचा था कि नन्दनवन की वह पहली मुलाकात और थोड़े दिनों का साथ अंतिम मुलाकात हो जाएगी। कल्पना तो यहां तक थी कि गुरुदेव की कृपा से योगक्षेम वर्ष में परिवार के चारों सदस्य फिर से मिलेंगे और वह नजारा सभी देख अभिभूत होंगे। पर साध्वी धैर्यप्रभाजी तो इतनी शीघ्र प्रस्थान कर जाएगी सोचा भी न था। मुनि कौशलकुमार जी का सौभाग्य था कि वे अंत में मुनि अनिकेत कुमार जी के साथ थे और साध्वी सिद्धार्थप्रभा जी का सौभाग्य है कि वे अंत समय में साध्वी धैर्यप्रभाजी के पास थे। गुरुदेव की असीम कृपा से साध्वी धैर्यप्रभाजी ने परिवार संग दीक्षा ग्रहण कर इतिहास रचा तो वहीं गुरु चरणों में अपना जीवन अर्पण कर एक और स्वर्णिम पृष्ठ रच दिया। ऐसे अप्रमत्त, स्वावलंबी, वैराग्य से परिपूर्ण साध्वी धैर्यप्रभा जी की आत्मा को शीघ्र सिद्ध गति प्राप्त हो यही मंगलकामना है।