शुद्ध भावों से वन्दना करने से होता है तीर्थंकर गौत्र का बंधन

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शुद्ध भावों से वन्दना करने से होता है तीर्थंकर गौत्र का बंधन

साधना के छोटे-छोटे प्रयोग भी उपयोगी बनते हैं, नव निर्माण में सहायक बनते हैं, आत्मोन्नति के साधक बनते हैं। उपरोक्त विचार आचार्य श्री महाश्रमणजी के सुशिष्य मुनि हिमांशुकुमार जी ने तेरापंथ सभा भवन, साहुकारपेट में धर्म परिषद् को सम्बोधित करते हुए कहे। मुनिश्री ने कहा कि साधना का एक अंग है- वन्दना। जिनेन्द्र प्रभु, पंच महाव्रतधारी साधुओं को मन, वचन, काया की एकलयता में शुद्ध भावों से वन्दना की जाती हैं, तो अनेकानेक लाभ होते हैं। उत्तराध्यन सूत्र के 29वें अध्याय के 11वें सूत्र में भगवान महावीर ने बताया कि सम्यक् भावना से वन्दना करने से- नीच गौत्र कर्म का क्षय और उच्च गौत्र का बन्धन होता है, वन्दना से विनम्रता आती है, अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण होता है, अबाधित सौभाग्य की प्राप्ति होती है, तीर्थंकर गौत्र का बंधन भी हो सकता है।
मुनिश्री ने वन्दना के आध्यात्मिक पक्ष के साथ व्यावहारिक लाभ को उजागर करते हुए बताया कि शुद्ध भावों से वन्दना करने वाला व्यक्ति दुर्गति में नहीं जाता है। नीचे झुक कर वन्दना करने से एड्रिनल ग्रंथि के हारमोंस बैलेंस होते है, उससे गुस्सा शांत हो जाता है, चंचलता कम होती है,रक्त का प्रवाह मस्तिष्क की ओर होने से न्यूरॉन्स का स्राव बढ़ जाता है उससे बुद्धि का विकास होता है, चेहरे की सुंदरता और ओजस्विता बढ़ती हैं। मुनि हेमंतकुमारजी ने LORD is Now Here विषय पर प्रस्तुति देते हुए कहा कि हर व्यक्ति सुख को पाना चाहता है और भौतिक जगत, पदार्थ की प्राप्ति में ही सुख का अनुभव करता है। जबकि वास्तविक सुख तो जिनेश्वर द्वारा बताया मार्ग ही है।
वर्तमान में जिनेश्वर प्रभु साक्षात् हमारे सामने नहीं है, परन्तु उनकी श्रुत वाणी के रूप में वे अभी भी हमारे बीच में ही है। सम्यक् पुरुषार्थ के साथ जिन वचनों की पालना करने वाला अपने जीवन का रुपांतरण कर सकता है, मुक्ति को पा सकता है।