गुरुवाणी/ केन्द्र
विवेक पूर्ण आचरण का हो सतत प्रयास : आचार्यश्री महाश्रमण
जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, अखंड परिव्राजक, महातपस्वी युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि अहिंसा एक धर्म है। सभी प्राणी अहंतव्य हैं — यह धर्म शाश्वत और ध्रुव है। अहिंसा जीवन-शैली का अंग भी बन सकती है। यदि अहिंसा है, तो जीवन में शान्ति और सुख रहते हैं, और आत्मा भी उत्तम मार्ग पर अग्रसर रहती है। जहाँ द्रव्य-हिंसा अथवा भाव-हिंसा है, वह पाप है। हिंसा से दुःख उत्पन्न होते हैं। कोई व्यक्ति धर्म, स्वर्ग–नरक आदि को न भी माने, तब भी यदि वह अहिंसा के पथ पर चलता है तो यह उसके लिए हितकारी सिद्ध होगा।
हिंसा के दो प्रकार बताए गए हैं —
आरंभजा हिंसा
संकल्पजा हिंसा
शरीर के पोषण से जुड़ी प्रवृत्तियाँ, जैसे भोजन, पानी आदि में भी हिंसा हो सकती है। इसी प्रकार खेती-बाड़ी, रसोई पकाने आदि में भी हिंसा का होना संभव है। इस प्रकार गृहस्थ जीवन में कई हिंसा-स्थल हो सकते हैं। अतः जीवन-निर्वाह के संदर्भ में जो हिंसा होती है, वह आवश्यक हिंसा या आरंभजा हिंसा कहलाती है।
दूसरी है — संकल्पजा हिंसा। क्रोध, मोह, लोभ, ईर्ष्या आदि के प्रभाव में संकल्पपूर्वक किसी का वध करना संकल्पजा हिंसा है। यह हिंसा महापाप है। साधु जीवन भर सर्व-प्राणातिपात-विरमण व्रत की साधना करते हैं — यह अत्यंत उच्च कोटि की अहिंसा-साधना है। गृहस्थ को भी यथासंभव संकल्पजा हिंसा से बचने का प्रयत्न करना चाहिए। मांसाहार तथा अनन्त-काय के सेवन का त्याग करें और जानबूझकर की जाने वाली हिंसा से दूर रहें — इससे काफी हद तक हिंसा का परिहार संभव है। विवेकपूर्वक आचरण करने का सतत प्रयास होना चाहिए। इस प्रकार अहिंसा की भावना क्रमशः विकसित होती है।
व्यक्ति को चाहिए कि वह किसी के प्रति बैर-भाव न रखे। अपने जीवन में धर्म को समाहित करने का प्रयास करे। सभी के जीवन में अहिंसा, सच्चाई, नैतिकता, ईमानदारी आदि गुणों का विकास हो — यही आत्मा के लिए श्रेष्ठ और श्रेयस्कर है।
आचार्य प्रवर के निर्देशानुसार समणी विनय प्रज्ञा जी ने अंग्रेजी भाषा में अपनी भावाभिव्यक्ति प्रस्तुत की। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।