गुरुवाणी/ केन्द्र
ईमानदारी के प्रति रहे निष्ठा : आचार्यश्री महाश्रमण
पुण्य सम्राट युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अमृत देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि जैन वांग्मय में अठारह पाप बताए गए हैं इनमें तीसरा पाप अदत्तादान है। अदत्तादान का अर्थ है - जो वस्तु हमें नहीं दी गई है, उसे ले लेना अर्थात् चोरी। किसी के घर में जाएं और किसी बिना दी हुई वस्तु को उठाकर रख लेना चोरी है। चोरी को पाप बतलाया गया है। व्यक्ति के घर में कोई कमी नहीं होने पर भी लोभ के कारण चोरी कर सकता है। किसी वस्तु के प्रति व्यक्ति के मन में लोभ व मोह होता है तो वह चोरी कर लेता है।
ईमानदारी को सर्वोत्तम नीति कहा गया है। जो व्यक्ति ईमानदारी रखता है, उसकी इज्जत भी बढ़ सकती है और उसके प्रति विश्वास का भाव भी पैदा हो सकता है। लोभ के कारण दूसरे की वस्तु को चोरी के रूप में लेने से जो पाप कर्म का बन्ध होता है उसका फल इस जन्म में अथवा आगे के जन्मों में भोगना पड़ता है। इसलिए यह चिन्तन रहे कि दूसरे की चीज धूल के समान है, उसे मुझे नहीं उठाना है।
ईमानदारी की भावना बहुत बड़ी बात होती है। अतः व्यक्ति का मनोभाव, दृष्टिकोण, निष्ठा, ईमानदारी के प्रति रहनी चाहिए। हमें यह मानव जीवन मिला है इसमें बेईमानी, धोखाधड़ी, झूठ-कपट करके पाप कर्म का बंधन नहीं करना चाहिए। जीवन संयम और सादगी से जीना चाहिए। थोड़े से यदि हमारा जीवन चल सकता है तो धोखाधड़ी करके धन-अर्जन का प्रयास नहीं करना चाहिए। ईमानदारी सभी के लिए आवश्यक है। ईमानदारी एक पवित्र चीज है अतः व्यक्ति बेईमानी से बचे और ईमानदारी का पालन करे, यह काम्य है।
आचार्यश्री ने आगे कहा कि आज यहां बिछीवाड़ा में आना हुआ है। यहां के सभी लोगों में आध्यात्मिक-धार्मिक विकास हो। विद्यालय के बच्चों में भी ज्ञान के साथ-साथ अच्छे संस्कारों का विकास होता रहे। विद्यालय के प्रिंसिपल हरीश शर्मा ने अभिव्यक्ति दी और आचार्य प्रवर से मंगल आशीर्वाद प्राप्त किया। बाबूलाल कोठारी, धनपाल ने भी अपनी भावाभिव्यक्ति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।