जो प्राप्त है, वह पर्याप्त है : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

राजेन्द्रनगर, साबरकांठा। 13 नवम्बर, 2025

जो प्राप्त है, वह पर्याप्त है : आचार्यश्री महाश्रमण

जैनागम व्यख्याकार तीर्थंकर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमणजी ने राजेन्द्रनगर में स्थित एम.एम. चौधरी ऑर्ट्स कॉलेज परिसर में आर्हत् वाङ्मय पर आधारित पावन देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि जैन वाङ्मय में ‘आश्रव’ शब्द आता है। आश्रव अर्थात वह परिणाम, वह भाव, वह प्रवृत्ति जिसके द्वारा कर्मों का आगमन होता है और कर्म आत्मा से चिपक जाते हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, क्रोध, अहंकार, माया, लोभ आदि अनेक आचरण ऐसे हैं जिनसे पापकर्मों का बंधन होता है। इन प्रवृत्तियों से आत्मा मलिन बनती है और उनके फल का भोग भी स्वयं को ही करना पड़ता है।
आचार्यश्री ने कहा कि यदि कोई साधु बन जाए और साधुत्व का उत्तम पालन करे तो पापकर्मों से बहुत बचाव हो सकता है। सभी के लिए साधुत्व करना संभव न भी हो, तो भी गृहस्थ जीवन में रहकर व्यक्ति पाप से बचे और बुराइयों से दूर रहने का प्रयास करे। बच्चों में भी यह संस्कार आना चाहिए कि बुरे कार्यों और पापकर्मों से बचना है। यदि यह भावना भीतर तक उतर जाए तो उनका जीवन श्रेष्ठ बन सकता है।
आज अनेक विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय ज्ञान के आदान-प्रदान का महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। विद्यार्थियों को अनेक विषयों और भाषाओं का ज्ञान दिया जाता है, जो आवश्यक भी है। परंतु इसके साथ-साथ बच्चों में अच्छे संस्कार देने का प्रयास भी उतना ही आवश्यक है। बच्चों में ईमानदारी की भावना, अहिंसा का संकल्प, नशामुक्ति, विनयशीलता और साथ ही उत्कृष्ट बुद्धि व ज्ञान हो—तो ऐसे बच्चे समाज और परिवार दोनों के लिए अत्यंत उपयोगी बन सकते हैं।
विद्या संस्थानों में अध्यात्म, योग और ध्यान का ज्ञान तथा प्रयोग भी होना चाहिए। इन माध्यमों से बच्चों को केवल शिक्षित ही नहीं बल्कि संस्कारित भी बनाया जा सकता है। धन अर्जन और आजीविका चलाना शिक्षा का एक उद्देश्य हो सकता है, इसमें कोई गलत नहीं, लेकिन इसके साथ अच्छा जीवन जीने की कला भी आनी चाहिए। तभी जीवन का संतुलित और समग्र विकास संभव है। शिक्षा का सही विकास दूसरों की पवित्र सेवा का भी कार्य है।
आचार्यश्री ने कहा कि आसक्ति, लोभ और मोह से बचना चाहिए। बच्चों को आवश्यकता और आकांक्षा का अंतर समझ आना चाहिए। आवश्यकताएँ पूरी हो सकती हैं, पर आकांक्षाएँ अनंत हैं, वे कभी समाप्त नहीं होतीं। धन का असीम संग्रह उचित नहीं। संतोषी व्यक्ति सदैव सुखी रहता है और कामनाएँ व्यक्ति को दुःखी बनाती हैं। अतः यह भावना रहे—जो प्राप्त है वही पर्याप्त है।
व्यापार और धंधों में ईमानदारी होना आवश्यक है। धोखाधड़ी, ठगी और बेईमानी से कमाया धन वास्तविक अर्थ नहीं, मात्र अर्थाभास है। बेईमानी से अर्जित धन मलिन होता है, जबकि मेहनत, सत्य और ईमानदारी से कमाया धन ही सच्चा धन है। धन के उपभोग में भी संयम होना चाहिए। व्यक्ति अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहे और अनुशासित जीवनशैली अपनाए तो जीवन सुखमय बन सकता है।
आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में उपस्थित साबरकांठा जिले के कलेक्टर ललितभाई ने आचार्यश्री के दर्शन कर अपनी जिज्ञासाएँ प्रस्तुत कीं, जिनका पूज्यवर ने समाधान किया। जिला कलेक्टर महोदय ने अपनी भावाभिव्यक्ति भी दी। समणी भविक प्रज्ञाजी ने अंग्रेज़ी भाषा में अपनी अभिव्यक्ति प्रस्तुत की। विश्व भारती एजुकेशन संस्थान द्वारा संचालित इस स्कूल के प्रिंसिपल प्रवीणभाई चौधरी ने आचार्यश्री के स्वागत में अपनी भावनाएँ अभिव्यक्त कीं।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।