स्वाध्याय
धर्म है उत्कृष्ट मंगल
ठाकुर साहब ने कहा- घरवाली भी आ रही है। गुरुदेव ने देखा, कुछ दूर गेडिया के सहारे मंथर गति से चलती हुई ठकुरानीजी आ रही हैं। आचार्यश्री ने सामने पधारकर दर्शन दिए। ठकुरानीजी का रोम-रोम पुलकित हो उठा। आचार्यश्री पुनः अपनी पादवीथिका की ओर बढ़े ! लोगों ने कहा-कांटे बहुत हैं। आचार्यश्री ने टोकते हुए कहा- कांटे नहीं देखे जाते, भक्ति देखी जाती है।
मदिरा का उन्मूलन
१७ मार्च १९८५ (लगभग) की प्रातःकालीन वेला। छोटा-सा ग्राम कांकरोद। आचार्यवर ने अपने प्रवचन के दौरान व्यसनमुक्ति के लिए लोगों को आहान किया। एक-एक कर लोग खड़े होकर शराब, मांस, धूम्रपान आदि का प्रत्याख्यान करने लगे। स्थानीय सरपंच और जागीरदार भी नियमबद्ध बन गए। देखते-देखते लगभग सारा गांव मदिरा-मुक्त बन गया।
सघर्ष का संहार
१६ मार्च १९८५ को आचार्य प्रवर भीम पधारे। यहां के लोगों में कुछ मुद्दों को लेकर आपस में तनाव था। लोगों ने विवाद को विनष्ट करने के लिए काफी प्रयास किया पर सारा प्रयत्न निष्फल सिद्ध हुआ। आचार्यवर ने दोनों पक्षों की बातें सुनीं। दूसरे दिन गुरुदेव ने बड़ाखेड़ा की ओर प्रस्थान करते हुए कहा-हम कल पुनः यहां आएं, उससे पहले यह विवाद समाप्त हो जाना चाहिए। लोगों ने गुरुदेव के संकेत को गहराई से स्वीकार किया। अथक प्रयास करके रात्रि में विवाद को समाप्त कर सारे लोग एकमत हो गए। २२ मार्च को सवेरे लोगों ने दर्शन कर आचार्यवर को विवाद-समाप्ति की सूचना दी। जहां आचार्यवर का पदार्पण होता है, वहां के संघर्ष हर्ष में परिणत हो जाते हैं।
आग्रह का त्याग
२० मार्च १६८५ को आचार्यवर बड़ाखेड़ा पधारे। यहां के समाज में पिछले कई वर्षों से तड़ (दो पक्ष) बने हुए थे। इसका कारण था-यहां के एक तेरापंथी भाई ने अपना मकान समाज को उपहत किया था। उस भाई की मृत्यु के बाद भवन को लेकर भारी तनाव बढ़ गया। कुछ लोग उस मकान को जैन-भवन के रूप में बनाना चाहते थे और कुछ लोग सभा-भवन के रूप में। बात इतनी बढ़ गई कि दो पक्ष बन गए। पार्श्ववर्ती ग्राम बराखण और आसण में भी इस मुद्दे को लेकर दो पक्ष बन गए। इन गांवों की पंचायत एक है। बीच-बीच में कुछ लोगों ने विवाद-समाप्ति के प्रयास भी किए पर सफलता नहीं मिली।
किसी भाई ने आचार्य प्रवर को अवगत करवाया कि यहां दो पक्ष हैं। आचार्यश्री ने भी अपने प्रथम प्रवचन में ही लोगों का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया। कुछ लोग प्रयास में जुटे। आसण और बराखण के लोग भी उपस्थित हो गए। सब लोग मान गए पर श्री मोहनलाल आच्छा नहीं मान रहे थे। वे अपने पक्ष को सही साबित करने के लिए आग्रही बने हुए थे। आचार्यवर ने फरमाया मोहनलाल! आग्रह छोड़ दो।
मोहनलाल-गुरुदेव! आपके प्रति मेरे मन में पूर्ण श्रद्धा है। मेरे रोम-रोम में बस आप रमे हुए हैं। आप कहो तो मैं धूप में खड़ा-खड़ा सूख जाऊ पर यह बात तो नहीं मानूंगा।
लोगों ने कहा– मोहनलाल ! अकेले रह जाओगे।
मोहनलाल– भले रह जाऊं पर बात नहीं छोडूंगा।
सभा विसर्जित हुई। देवगढ़ निवासी श्री जुगराज जी आदि लोगों ने मोहनलाल को समझाया, फलस्वरूप उन्होंने अपना आग्रह छोड़ दिया। रात्रि में पुनः सभी लोग एकत्रित हुए। पहले लिखे हुए अभिलेखों को गुरुदेव के समक्ष रद्द कर सब एक मत हो गए।
साधना का शिखर
चाखेड-६-६-८४
परमाराध्य आचार्यवर श्री तुलसी एवं युवाचार्यवर श्री महाप्रज्ञ पास-पास विराजमान थे। दोनों महापुरुषों के सम्मुख विद्यार्थी साधु-साध्वियों का समुदाय उपासीन था। आचार्यचरण के सान्निध्य में भगवती सूत्र का वाचन चल रहा था। वाचन के दौरान प्रसंगवश आचार्यवर ने अपने जीवन का एक संस्मरण सुनाया। यह संस्मरण उस समय का है जब पारमार्थिक शिक्षण संस्था की बहिनें आचार्यवर के साथ पदयात्रा किया करती थीं।