श्रमण महावीर

स्वाध्याय

-आचार्यश्री महाप्रज्ञ

श्रमण महावीर

एक संस्कृत श्लोक उनका प्रबल प्रतिनिधित्व करता है-
जिते च लभ्यते लक्ष्मीः, मृते चापि सुरांगना। 
क्षणभंगुरको देहः, का चिन्ता मरणे रणे।॥
– विजय होने पर लक्ष्मी मिलती है, मर जाने पर देवांगना। यह शरीर क्षणभंगुर है, फिर समरांगण में मौत की क्या चिन्ता ?'
ऐसी प्रशस्तियों से युद्ध को लौकिक और अलौकिक-दोनों प्रतिष्ठाएं प्राप्त हो रही थीं। कुछ धर्म-संस्थाएं भी उसका समर्थन कर रही थीं। उसके विरोध में आवाज उठाने का अर्थ था-अपनी लोकप्रियता को चुनौती देना। उस परिस्थिति में महावीर ने उसका तीव्र विरोध किया। वह विरोध भौतिक हितों के सन्दर्भ में हो रहे युद्ध के समर्थन का विरोध था। वह विरोध समग्र मानवता के हितों के संदर्भ होने वाला विरोध था। वह विरोध शस्त्र से संरक्षित भीरुता का विरोध था। वह विरोध दूसरे राष्ट्र के नागरिकों की चिताओं पर खड़ी की जाने वाली अट्टालिकाओं का विरोध था। वह विरोध कायरता को संरक्षण देने वाला विरोध नहीं था। सच तो यह है कि भगवान् के विरोध की दिशा युद्ध नहीं, अनाक्रमण था। भगवान् जनता को और राष्ट्र को अनाक्रमण का संकल्प दे रहे थे। अनाक्रमण का अर्थ है-युद्ध का न होना। एक आक्रमण करे और दूसरा उसे चुपचाप सहे, वह या तो साधु हो सकता है या कायर। भगवान् जानते थे कि समूचा समाज साधुत्व की दीक्षा से दीक्षित नहीं हो सकता और भगवान् नहीं देना चाहते थे समाज को कायरता और कर्त्तव्य-विमुखता का अनुदान। आक्रमण होने पर प्रत्याक्रमण करने का वर्जन कैसे किया जा सकता था? किया जा सकता था आक्रमण के अहिंसक प्रतिरोध का विधान। उस युग में इस मनोभूमिका का निर्माण नहीं हो पाया था।
भगवान् व्यवहार की भूमिका के औचित्य को समझते थे। इसलिए उन्होंने जनता को प्रत्याक्रमण का निषेध नहीं दिया और नहीं दिया कर्त्तव्य के अतिक्रमण का सन्देश । भगवान् प्रत्याक्रमण में भी अहिंसा का दृष्टिकोण बनाए रखने का संकल्प देते थे। हिंसा की अनिवार्यता आ जाने पर भी करुणा की स्मृति का संकल्प देते थे।
वरुण भगवान् महावीर का उपासक था। उसने अनाक्रमण का संकल्प स्वीकार किया था। 
सम्राट कोणिक ने वैशाल१२, पर आक्रमण किया। वरुण को रणभूमि में जाने का आदेश हुआ। वह गणतंत्र के सेनानी का आदेश पाकर रणभूमि में गया। चम्पा का एक सैनिक उसके सामने आकर बोला-ओ वैशाली के योद्धा! क्या देखते हो? प्रहार करो न!' वरुण ने कहा- 'प्रहार न करने वाले पर मैं प्रहार नहीं कर सकता और एक दिन में एक बार से अधिक प्रहार नहीं कर सकता।' चम्पा का सैनिक उसकी बात सुन तमतमा उठा। उसने पूरी शक्ति लगाकर बाण फेंका। वरुण का शरीर आहत हो गया।
वरुण कुशल धनुर्धर था। उसका निशाना अचूक था। उसने धनुष को कानों तक खींचकर बाण चलाया। चम्पा का सैनिक एक ही प्रहार से मौत के मुंह में चला गया।
महाराज चेटक भी प्रहार न करने वाले पर प्रहार और एक दिन में एक बार से अधिक प्रहार नहीं करते थे। यह था प्रत्याक्रमण में अहिंसा का विवेक । यह थी हिंसा की अनिवार्यता और अहिंसा की स्मृति ।
महाराज चेटक अहिंसा के व्रती थे। अनाक्रमण का सिद्धांत उन्हें मान्य था। उनकी साम्राज्य-विस्तार की भावना मानवीय कल्याण की धारा में समाप्त हो चुकी थी। फिर भी वे अपने सामाजिक दायित्व के प्रति सजग थे। एक बार महारानी पद्मावती ने कोणिक से कहा-'राज्य का आनन्द तो वेहल्लकुमार लूट रहा है। आप तो नाम भर के राजा हैं।' कोणिक ने इसका हेतु जानना चाहा। महारानी ने कहा- 'वेहल्लकुमार के पास सचेतक गंधहस्ती और अठारहसरा हार है। राज्य के दोनों उत्कृष्ट रत्न हमारे अधिकार में नहीं हैं, फिर राजा होने का क्या अर्थ है?'
महारानी का तर्कबाण अमोघ था। कोणिक का हृदय विध गया। उसने वेहल्लकुमार से हार और हाथी की मांग की। वेहल्लकुमार ने कहा- 'स्वामिन् ! सम्राट श्रेणिक ने अपने जीवनकाल में हार और हाथी मुझे दिए थे, इसलिए ये मेरी निजी सम्पदा के अभिन्न अंग हैं। आप मुझे आधा राज्य दें तो मैं आपको हार और हाथी दे सकता हूं।' कोणिक ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।
कोणिक मेरे हार और हाथी पर बलात् अधिकार कर लेगा, इस आशंका से अभिभूत वेहल्लकुमार ने महाराज चेटक के पास चले जाने की गुप्त योजना बनाई। अवसर पाकर अपनी सारी सम्पदा के साथ वह वैशाली चला गया।