साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा

(37)
भाग्योदय हो गया विश्‍व का
शांतिदूत धरती पर आए
मूर्च्छित मानवता के खातिर
संजीवनी अणुव्रत लाए॥

भोर आज की है मनभावन
खुशियों से यह दामन भर दो
आस्था के उजले ये मोती
स्वीकृत करके आशीर्वर दो
नव प्रभात यह तुम्हें मुबारक
हम पैगाम शुभंकर पाएँ॥

आलंबन हो तुम अबलों के
असहायों के सबल सहारे
आगत और अनागत तुम ही
पुलक रहे हैं प्राण हमारे
जन्मोत्सव की मंगल वेला
गीत सुनाती दसों दिशाएँ॥

मन-मंदिर हर समय खुला है
बसी वहाँ पर मूर्ति तुम्हारी
अपने दिल में स्थान हमें दो
है अरसे से चाह हमारी
भरो माधुरी इन कंठों में
गीत तुम्हारे जीभर गाएँ॥

नए-नए सपने संजोकर
गौरवमय इतिहास बनाया
युग की जटिल समस्याओं को
समाधान का पथ दिखलाया
है जीवन अभिराम तुम्हारा
पल-पल सफल प्रेरणा पाएँ॥

(38)
महक उठे जीवन का मधुवन
कविवर! ऐसा गीत सुनाओ
चहक उठे प्राणों का पंछी
मन को ऐसा मीत बताओ॥

सपनों की दुनिया में जीती
कैसे सच से नाता जोड़ूँ
है प्रकाश की प्यास बहुत पर
कैसे तम का पल्ला छोड़ूँ?
तुम ही कोई राह दिखाओ॥

ऊपर से देखा जीवन को
कैसे परिचय हो यथार्थ से
मन को किस खूँटी पर बाँधूँ
जो है अनुबंधित पदार्थ से
तुम कोई तकनीक सुझाओ॥

भरा धुँधलका इन आँखों में
कैसे सुंदर चित्र बनाऊँ?
नहीं कुशल व्यवहार अगर तो
कैसे पर को मित्र बनाऊँ?
तुम ही समाधान बन जाओ॥

जहाँ देखती तुम ही तुम हो
और नहीं कुछ भी दिखता है
हो चाहे दुनिया सतरंगी
मुझको तो नीरस सिकता है
जीवन-जड़ में रस पहुँचाओ॥

कौन कहाँ से आए हो तुम
किस अभिधा से तुम्हें पुकारूँ
कामकुंभ सुरगिरि या सुरतरु
या तुम-सा तुमको स्वीकारूँ
इस उलझन को दूर भगाओ॥
(क्रमश:)