तेरापंथ की श्रीवृद्धि के प्रतीक मुनि हेमराजजी स्वामी
तेरापंथ धर्मसंघ में आचार्यों का स्थान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता है। उनकी आज्ञा, उनका सम्मान, उनका अहिसात्मक, अनुशासन अनुलंघनीय होता है। आचार्यों ने अपनी साधना, प्रज्ञा, समयज्ञता, दूरदर्शिता एवं युगानुकुल चिंतन से संघ समाज को जीवंत मार्गदर्शन दिया है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि इस गौरवशाली संघ में ऐसे संत भी हुए हैं, जिन्होंने संघ के विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया है। गुरुदेव श्री तुलसी ने मुनि हेमराज जी (सिरियारी) एवं मंत्री मुनि मगनलाल जी स्वामी को ‘शासन महास्तंभ’ के अलंकरण से अलंकृत कर उनकी महत्ता को उजागर किया। दोनों ही मुनिप्रवर का धर्मसंघ में विशेष अनुकरणीय योगदान रहा है। वर्तमान में इस संघ को अन्य संप्रदाय के लोग गरिमामय दृष्टि से निहार रहे हैं। प्रारंभ में स्थिति ठीक इसके विपरीत थी। जब तेरापंथ धर्मसंघ संघर्षों के चक्रवात में अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहा था। और विकास के लिए सतत प्रयत्नशील था। तब 36 वर्ष की दीर्घ अवधि में भी वह साधुओं की 12 की संख्या में आगे नहीं बढ़ सका। आचार्यश्री भिक्षु ने वि0सं0 1817 में तेरापंथ धर्मसंघ का प्रवर्तन किया तब तेरह साधु थे किंतु आगमोक्त चर्या एवं कठोर अनुशासन के कारण सात साधु संघ से बाहर हो गए और केवल छ: साधु रहे।
मुनि हेमराज जी स्वामी का जन्म माघ शुक्ला त्रयोदशी वि0सं0 1829 पुष्य नक्षत्र आयुष्य मानयोग में सिरियारी में हुआ। अध्यात्म का सिंचन पाकर 24 वर्ष के उफनते यौवन में भोगवाद एवं उपभोगतावाद को त्यागकर संयम की ोत स्विनि में स्वयं को निमज्जित कर दिया। एक अनूठा संयोग कि जन्म एवं दीक्षा दोनों माघ शुक्ला त्रयोदशी पुष्य नक्षत्र आयुष्यमान योग में हेमराजजी की दीक्षा के समय संघ में 12 साधु थे, आप तेरहवें साधु हुए। इसके बाद संख्या निरंतर बढ़ती गई। इसलिए श्रीमद् जयाचार्य ने लिखा
द्वादश मुनि आगे हुता, त्या पछै वृद्धि थई रे। हेमचरण सुविद्धिकरण प्रत्यक्ष वयण मिल ही रे।
मुनि हेमराजजी की महिमा एवं गरिमा का अंकन करते हुए गणाधिपति श्री तुलसी एवं आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने वि0सं0 2053 में हेम दीक्षा द्विशताब्दी समारोह मनाया। पहला अवसर था तेरापंथ धर्मसंघ में किसी संत के दीक्षा द्विशताब्दी वर्ष मनाने का। तीन चरण में आयोजित दीक्षा द्विशताब्दी समारोह में बीदासर में सतरह, श्रीडूंगरगढ़ में सात एवं गंगाशहर में इक्कीस इस प्रकार एक वर्ष में कुल 45 दीक्षाएँ संपन्न हुई।
मुनि हेमराजजी स्वामी गृहस्थावस्था से ही आगमज्ञाता, शास्त्रार्थ निपुणता अकाट्य तर्क शैली के गुणों से संपन्न थे। हेमराज जी जब दीक्षा लेने वाले थे तब उनकी प्रतिभा के कारण आचार्यश्री भिक्षु ने अपने उत्तराधिकारी युवाचार्य श्री भारमल जी ने कहा
भारीमाल स्यू भिक्खू कहै अब,
थे हुवा निचिन्त।
आगे तो थारे म्है हुता,
अब हेम अघजीत॥
आचार्यश्री भिक्षु ने मुनि हेमराज जी को शास्त्रार्थ में अपने समकक्ष मानकर युवाचार्य भारमल जी को निश्चित कर दिया। मुनि हेमराज जी आशु कवि थे। वे व्याख्यान देते-देते नव रचना बनाकर जनता को सुनाते। एक बार मुनि वेणीरामजी ने आचार्यश्री भिक्षु से कहाभंते! मुनि हेमराज जी को व्याख्यान पूरे कंठस्थ नहीं हैं। वे जोड़ते जाते हैं। और व्याख्यान देते जाते हैं। आचार्यश्री भिक्षु ने जवाब देते हुए कहाकेवली सूत्र व्यतिरिक्त ही होते हैं। मुनि हेमराजजी की काव्यकला व्याख्यान देने की शैली बेजोड़ थी। तेरापंथ धर्मसंघ में दीक्षा देने का अधिकार आचार्यों का होता है। विशेष परिस्थिति में आचार्यश्री की आज्ञा से साधु-साध्वी भी दीक्षा प्रदान करते हैं। मुनि हेमराजजी ने 14 दीक्षा प्रदान की। मुनि सतीदास जी जिनको आचार्यश्री जीतमल जी ने अतिरिक्त सम्मान दिया। संघ में उनका विशिष्ट स्थान था। ॐ अ0भी0रा0 शि0को0 नम: इसमें अमीचंदजी और शिवजी इन दोनों तपस्वियों का नाम आता है। इन दोनों तपस्वियों और सतीदास जी को दीक्षित करने का श्रेय मुनि हेमराज जी को मिला। नंदूजी को गृहस्थ वस्त्रों एवं आभूषणों सहित दीक्षा प्रदान की जो इतिहास का नव आलेख बना।
मुनि हेमराजजी का जीवन तप संयम से ओत-प्रोत था। शीतकाल की सर्द हवाओं में केवल एक पछेवड़ी का उपयोग कर साधना करते थे। जिस तरह लड़ाई के मैदान में सैनिक की निगाहें मोर्चे पर होती है, न की अपने घावों पर उसी तरह मुनि हेमराज जी स्वामी का ध्यान आत्मकेंद्रित था। अपने वर्ग (सिंघाड़ा) में रहने वाले संतों को दीर्घकालीन तपस्या की प्रेरणा एवं सहयोग देते रहते थे। सहयोगी संत प्रतिवर्ष लंबी-लंबी तपस्याएँ करते 104, 106, 186 के अंकों को छुआ तो मुनि उदयचंदजी प्रतिवर्ष 2-3 मासखमण कर कर्ममल को दूर करते।
तेरांपथ के प्रथम चार आचार्यों की मुनि हेमराज जी पर विशेष कृपा दृष्टि एवं बहुमान का भाव बना रहा। आचार्यश्री भिक्षु मुनि हेमराज जी की गृहस्थावस्था से ही बहुत अधिक प्रभावित थे और उनकी दीक्षा के लिए उन्होंने अतिरिक्त प्रयत्न किया, क्योंकि वे उनकी दीक्षा में कोई विशेष प्रतिभा के योगदान की अनुभूति करते थे। मुनि हेमराज जी निष्प्रिय एवं अनासक्त व्यक्तित्व के धनी थे। वे सब प्रकार से योग्य, सक्षम, प्रतिभावान एवं साधुत्व में जागरूक पापभीरू साधु थे। उनमें विद्वता एवं विनम्रता की पराकाष्ठा मणि कांचन का योग थी। उदयपुर के महाराणा ने जब आचार्यश्री भारमलजी को उदयपुर आने का निवेदन किया तब आचार्यश्री भारमलजी ने मुनि हेमराज जी को अपने ही समान मानकर संतों के साथ उदयपुर भिजवाया। आचार्यश्री रायचंद जी ने भी उन्हें आदरास्पद स्थान दिया। उनके स्वर्गवास के बाद आचार्यश्री रायचंदजी ने जो भाव व्यक्त किए श्रीमद् जयाचार्य जी ने उसे दोहे में लिखा
भिक्खू भारीमाल सतयुगी चल्या हो,
जब इसी करडी लगी नाय।
पिण हिवडै करडी लागी घणी हो,
इम बोल्या ॠषराय॥
आचार्य श्री भिक्षु ने तेरापंथ की आत्मा का निर्माण किया तो शरीर का निर्माण किया श्रीमद् जयाचार्य जी ने।
नए संविधान नव व्यवस्था कर तेरापंथ धर्मसंघ को संवर्धित किया। ऐसे विरल प्रतिभावान, प्रभावशाली, आत्मसाधक आचार्य के विद्यागुरु थे मुनि हेमराज जी स्वामी। मुनि हेमराजजी स्वामी के कहने पर ही जयाचार्य जी ने चौबीसी की रचना की। अपने विद्या गुरु के प्रति जिन भावों से उन्होंने कृतज्ञता ज्ञापित की उससे सहज ही मुनि हेमराज जी के वर्चस्व, नेतृत्व, व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व का अनुमान लगा सकते हैं।
जयाचार्य जी ने कृतज्ञता व्यक्त करते हुए लिखा
मुनिवर रे हु तो बिंदु समान थो रे,
तुम कियो सिंधु समान हो लाल।
तुम गुण कबहु न विसरु रे,
निश दिन धरू तुझ ध्यान हो लाल॥
वस्तुत: मुनि हेमराजजी स्वामी का धर्मसंघ में पदार्पण विकास का सेतु बना। बारह से तेरह की संख्या आपके आने से हुई जो कभी घटी नहीं सदैव बढ़ती गई। आज सात समंदर पार भी धर्मसंघ की महिमा एवं गरिमा गूँज रही है। ऐसे पुण्य पुरुष आत्मसाधक की हेम दीक्षा द्विशताब्दी के प्रथम चरण में आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी के श्रीचरणों में करकमलों से प्रथम दीक्षित होने का सौभाग्य मिला। ऐसे महापुरुष के दीक्षा के 225 वर्ष पूर्ण होने पर अनंत-अनंत नमन।