शासनमाता असाधारण साध्वीप्रमुखा
कल्पना बैद
श्रद्धा जिनकी अंजलि में थी
धर्म जिनके स्वभाव में था
समर्पण जिनका पर्याय था
वो युग थी स्वयम् में
कनकप्रभा उनका नाम था।
स्वर्ण ने कभी आभा न छोड़ी
धर्मसंघ की कीर्ति जोड़ी
मौनमूक पथिक के पग ने
मर्यादा की कभी राह न छोड़ी।
शब्दों में वो प्रभाव कहाँ
जो उनके प्रताप को नाप सके
वो एक क्षितिज से नभ सागर में
हे प्रभो! उस शक्ति का अब ध्यान लगे।
सन्निधि में समाधान था उनके
आभा में चेतन्य प्रकाश
शंका तिमिर मिटते पल में
ओजस्विता का ऐसा प्रभाव।
चिंतन, लेखन से सृजन तक
आत्मविश्वास से प्रेरणा तक
ज्ञानमय तपो गंगा का दर्शन
निश्छल, निर्मल बहे कल-कल।
शिक्षा संस्कार की पीढ़ियाँ
उनसे चढ़ी युग की सीढ़ियाँ
नेतृत्व में समसामयिकता थी
सच में वो असाधारण साध्वीप्रमुखा थीं।