युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की षष्टिपूर्ति के अवसर पर
युगप्रधान तेरी स्तवना में, किन भावों का साज सजाऊं।
पास न मेरे शब्दकोष है, किन शब्दों से तुम्हें बधाऊं।।
मैं अबोध बालक प्रभु तेरा, तुम मेरे जीवन के प्राण,
मेरी हर हलचल में तेरी, करुणादृष्टि ही बनती त्राण।
तेरे अनगिन उपकारों को, सीमित क्षण में कैसे गाऊं।।
पास न मेरे कुंकुम केसर, नहीं रत्न से मंडितपाल,
नहीं दीप की बाती सुन्दर, नहीं फूल से सज्जित थाल।
भक्ति पूरित उपकारों में, निज सासों का अर्घ्य चढ़ाऊं।।
भाग्य विधाता प्रभु तेरी ही शरण सदा हरती बाधाएं,
इच्छित मंजिल को पाने का देती साहस और ऋचाएं।
शरण बनी जो आश्रय मेरी मैं उसमें ही रमता जाऊं।।