युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की षष्टिपूर्ति के अवसर पर
युग चिन्तन के दीवट पर जो अभिनव दीप जलाता है।
युग की पीड़ा सहलाता वह युगप्रधान कहलाता है।।
पांव-पांव चलकर पहुंचे तुम हर ढ़ाणी, हर गांव शहर
वह नर पहुंच गया शिखरों पर जिस पर तेरी हुई महर
बदली तुमने प्रभुवर! कितनों के जीवन की दशा दिशा
तेरे दिव्य तेज से बन जाती है उजली भोर निशा
हर उलझी गुत्थी सुलझाकर जो जीना सिखलाता है।।
श्रम का स्वेद बहाकर भी जो जन-जन की दुविधा हरते
इच्छापूरण बनकर भक्तों की इच्छा पूरी करते
स्व-पर की संकीर्ण सोच से जो रहता उन्मुक्त सदा।
जिसके प्रबल पुण्य से मानों टल जाती है हर विपदा
सब कुछ सहकर विष पीकर भी सबको सुधा पिलाता है।।
शास्त्रसिंधु का दोहन करके बांट रहे हो तुम नवनीत
तेरे अधरों पर गंुजित है आत्मजागरण के संगीत
पवित्रता के पुण्य धाम हो संयम से है गहरी प्रीत
सबकी नैया पार लगाए ज्योतिचरण ये परम पुनीत
जो भविष्य की आहट को सुन सही राह दिखलाता है।