युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की षष्टिपूर्ति के अवसर पर
हे पुण्यवान, करुणानिधान, तुम युगप्रधान बनकर छाए
ये दशों दिशाएं हर्षित हो, तव कीर्ति कौमुदी फैलाए।।
कुदरत का हर कोना-कोना, अभिनंदन करने उत्साही,
नंदनवन ऐसे माली को पाकर, लेता नव अंगड़ाई,
अभिनव पुलकन अनहद खुशियां, उत्सव के उजले पल आए।
अनुकंपा का अविरल प्रपात, बहता रहता बाहर भीतर,
बंजर धरती उर्वर बनती, जहां गिरता प्रभु का श्रम सीकर,
अविचल संकल्पी मनोबली, नतमस्तक होती विपदाएं।।
तुम जैसे आज्ञाकारी सुत विरले ही मातृभक्त होते,
आठों प्रवचनमाताओं की गोदी में नित सुख से सोते,
तुम जैसे परमपिता पाकर, हम सब संताने इठलाएं।।
मैं बनी विरागी दुनिया से, पर इन चरणों की अनुरागी,
अभयंकर सुखमय शरण मिली, जन्मों की पुनवानी जागी,
सब कुछ चरणों में अर्पित है, फिर क्या हम भेंट चढ़ा पाएं।।