युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की षष्टिपूर्ति के अवसर पर
युग-युग तक इतिहास रचो तुम,
तुम ही हो इस युग के नायक।।
मैत्री, करुणा प्रेम से झंकृत,
युग वीणा के तुम संगायक।।
कीर्तिमानों की नव्य श्रृंखला रुकी न अब तक रुक पायेगी,
परम पराक्रम की यह यात्रा नहीं कभी भी रुक पायेगी,
तुम ही हो हे दिव्य पुरुष! इस युग के अभिनव अधिनायक।।
कैसा निर्मल मन है तेरा करुणा का दरिया छलकाता,
जो भी तेरे द्वार पे आया कभी नहीं खाली लौटाया,
जो भी मांगा दिया प्रभु ने तुम ही हो वरदान प्रदायक।।
जिनशासन के दिव्य दिवाकर गण के तुम रखवाले विभुवर,
चेहरा पुलकित रहता हरपल सबके मन को जीता ऋषिवर,
मृदु अनुशासन शैली तेरी तुम ही हो हे गणमाली!
इस भैक्षवगण के वर संगाायक।।