युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की षष्टिपूर्ति के अवसर पर
गण उपवन की कोमल कली मैं
कैसे बरगद को विरूदाऊं
शब्द नहीं वह शब्दकोश में
जिससे प्रभु को आज रिझाऊं।।
गणनभ का हूं छोटा तारा
महासूर्य से पाऊं ज्योति
गुरु सन्निधि शुभ सीप मिली है
बन जाऊं मैं उजला मोती।।
गण मन्दिर का नन्हा प्रस्तर
कर पाऊं कैसे आराधन
पास हमारे भगवन केवल
अतिशय भाव भक्ति का साधन।।
विस्तृत गण सागर की बूंद हूं
सागरमय खुद मैं बन पाऊं
गण गणपति ही सब कुछ मेरा
प्रतिपल उनका मान बढ़ाऊं।।
वर्धापन का उत्सव अभिनव
युगप्रधान को आज बधाऊं
। र्से पसंद जो तुमको
स्वीकारो सब भेंट चढाऊं ।।