युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की षष्टिपूर्ति के अवसर पर
श्रद्धा के आस्थान! तेरी सन्निधि में जो रहते हैं
दरिया तू उपशम रस का भवजल से वो तरते हैं
अंतर मन की वीणा के सुर तुमसे ही सजते हैं
सप्त सुरों के नव रसों से, प्राणों में पुलकन भरते हैं।।
संघर्षों की तप्त तपिश में, समता की शीतल बहार हो
सम शम श्रम की शुभ त्रिवेणी मम जीवन आधार हो
मस्त सदा अपनेपन में तुम जिनशासन शृंगार हो
हर भक्त हृदय में वास तुम्हारा तुम्हीं खेवणहार हो।।