युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की षष्टिपूर्ति के अवसर पर
हे! मेरे माही मेरे मेहरबा मेरे खुदा।
तेरी रेहमत तेरा जुनुन तेरा साया जीना सिखाता है।
मेरे महाश्रमण तुमको देखकर मेरे मन में प्रश्न खड़ा होता है
कि तेरी तुलना मैं किससे करूं?
क्या सूरज से करूं? वह काम्य हैं?
नहीं, वह सूरज तो शाम ढ़लते ही अस्ताचल की ओर चला जाता है
जबकि तूं हर समय उदितोदित रहते हुए उदयाचल पर आरोहण
कर रहे हो।
क्या चन्द्रमा से करूं, वह उचित है?
नहीं, क्योंकि वह तो पूर्णिमा के दिन ही अपनी 16 कलाओं के
साथ शीतलता प्रदान करता है जबकि तूं अहर्निश अपनी आध्यात्मिक
कलाओं से समस्त जनमेदनी को शीतलता दे रहा है।
क्या बादलों से करूं वह संगत है?
नहीं, क्योंकि बादल तो बारिश के समय ही गरजते हैं बरसते हैं और
तूं हर समय पीयूषवर्षिणी वाणी से वात्सल्य की वर्षा कर रहा है।
क्या तुम्हारे को राम, कृष्ण या घनश्याम से मिलाऊं?
मेरे मन को वो भी ठीक नहीं लग रहा है, वह तो केवल अपने भक्त के
ही भगवान थे। जबकि तू जन-जन का भगवान बन चुका है।
उलझन में हूं तेरी तुलना किससे करूं?
तूं अकिंचन, अनुपम योगी, वीतराग, स्थितप्रज्ञ, स्थितात्मा।
अपनी छोटी सी बुद्धि से सोचा तो पाया-तूं व्यवहार से ऊपर उठकर
निश्चय में
इस मन-मंदिर के महातीर्थ हो, मेरा सम्मान, अभिमान हो।