युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की षष्टिपूर्ति के अवसर पर
मानवता के दिव्य रूप हो, धर्मदूत तुम बनकर आए।
मूर्च्छित मानव संस्कृति के हित, संजीवन लेकर तुम आए।।
पौरुष के हो परम पुजारी, कदम-कदम पर मिली प्रतिष्ठा
समाधान देते जन-जन को, मानव की तुम में है निष्ठा
जगत पढ़ेगा प्रभो! तुम्हारी, लिखी प्रेम की पुण्य ऋचाएं।।
लम्बी-लम्बी पदयात्रा कर, जन सम्पर्क बढ़ाया तुमने
वत्सलता की वर्षा करके, गीत स्नेह का गाया तुमने
देख तुम्हारी दिव्य परख को, बार-बार बलिहारी जाएं।।
संघ संपदा की श्रीवृद्धि, स्पष्ट अहर्निश उर में चिन्तन
संयम सार तत्त्व जीवन का, संयम से सज्जित है तन-मन
तेजस्वी संन्यास तुम्हारा प्रवर प्रेरणा पाते जाए।।
शिवं सुंदरं जीवन तेरा, आलोकित जैसे ध्रुवतारा
संकल्पों की ज्योत जला करते है हम अभिषेक तुम्हारा
अर्पित है सांसों की सरगम, आत्मज्योति मंजिल पाए।।