भौतिक ज्ञान के साथ आध्यात्मिक ज्ञान भी आवश्यक: आचार्यश्री महाश्रमण
ढ़ाणी भोपालराम, 25 मई, 2022
मानवता के उत्थान के लिए अपना जीवन समर्पित कर जन-जन का कल्याण करने वाले महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी लूणकरणसर से 9 किलोमीटर का विहार कर ढ़ाणी भोपालराम के राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय पधारे। मुख्य प्रवचन में अनंत आस्था के आस्थान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगल प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि आर्हत वाङ्मय में कहा गया है-ज्ञान और आचार एक तत्त्व है। दोनों एक-दूसरे से संबध हैं। आचरण अच्छा रखने के लिए, क्रिया को सम्यक् रखने के लिए, उस क्रिया के संबंध में ज्ञान भी सम्यक् और सही होना चाहिए।
ज्ञानविहीन आचरण और आचरण विहीन ज्ञान दोनों में कमियाँ हैं। फिर चाहे वो गृहिणी हो, व्यापारी हो, डॉक्टर हो, वकील हो, व्यक्ति जो भी कार्य करे, उसमें उसका ज्ञान ठीक होता है, तो वह कार्य सम्यक्तया संपन्न हो सकता है।
धर्म के क्षेत्र में भी ज्ञान है, तो धर्म की साधना अच्छी हो सकती है। शास्त्र में कहा गया है कि संयम को जानना है, संयम की साधना करनी है, तो पहले जीव-अजीव आदि को जानो। जो जीव-अजीव को जान पाएगा वो संयम को जान पाएगा, साधना कर पाएगा। चाहे लौकिक क्षेत्र में देखें या आध्यात्मिक क्षेत्र में देखें, ज्ञान का तो दोनों जगह बड़ा महत्त्व है। ज्ञान एक पवित्र तत्त्व है। ज्ञान और आचरण दोनों सही हो, वरना दोनों एक-दूसरे से अधूरे हैं। यह एक अंधे और पंगु आदमी के प्रसंग से समझाया कि दोनों एक-दूसरे के पूरक बन जाएँ तो काम हो सकता है। ज्ञान रहित व्यक्ति अंधा है और आचरण रहित व्यक्ति पंगु है। दोनों मिल जाएँ तो परिपूर्णता आ सकती है। कुछ लोग दुनिया में ऐसे होते हैं, जो जानते तो हैं, पर आचरण नहीं कर सकते। कई आचरण में सक्षम है, पर उनके पास ज्ञान नहीं है। जो तत्त्व को जानते भी हैं और उसका आचरण भी करते हैं, ऐसे लोग दुनिया में विरल होते हैं। ज्ञान का सार है-आचार।
अध्यात्म के क्षेत्र में अच्छा ज्ञान है, जिस ज्ञान से व्यक्ति राग से विराग की ओर आगे बढ़े। वो ज्ञान आध्यात्मिक है, जिसको जानकर व्यक्ति कल्याणकारी कार्यों में अनुरक्त हो जाए, हमारी आत्मा मैत्री भाव से भावित हो जाए। ज्ञान तो हर विषय में शुद्ध तत्त्व है। ज्ञान तो बहुत है, पर जीवनकाल सीमित है, तो क्या करें? ज्ञान अनंत है। हमसे भी बड़े ज्ञानी दुनिया में हैं। सारा ज्ञान पढ़ पाना मश्किल है। सारभूत ज्ञान को पढ़ लो, जैसे हंस दूध-दूध को ले लेता है, पानी को छोड़ देता है। जो उपयोगी तुम्हारे लिए है, वो तुम पढ़ो। धर्म के क्षेत्र में तो थोड़ा ज्ञान सभी को होना चाहिए। आगे के लिए अध्यात्म विद्या का भी ज्ञान हो। जीवन में शांति रह सके। भौतिक ज्ञान के साथ आध्यात्मिक ज्ञान भी हो। हमें अच्छा इंसान बनना है। यह कल्याणकारी हो सकता है। आज गाँव ढ़ाणी में आए हैं। हम तीन बातें बताते हैं-सद्भावना, नैतिकता और नशामुक्ति। पूज्यप्रवर ने इन तीनों के संकल्प-प्रतिज्ञा गाँव के लोगों को करवाई। पूज्यप्रवर की अभिवंदना में लूणकरणसर व्यवस्था समिति के अध्यक्ष हंसराज बरड़िया, तेयुप लूणकरणसर गीत, ढाणी गोपालाराम के जगदीश श्रेयांस बैद ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। जैविभा द्वारा प्रकाशित मुनि सुखलालजी की दो कृतियाँ चिंतन महावीर का और सच्चे बच्चे श्रीचरणों में लोकार्पित की गई। परम पावन ने आशीर्वचन फरमाया। पूज्यप्रवर ने फरमाया कि शासनश्री मुनि सुखलालजी एक अच्छे विद्वान संत थे। उनका विपुल साहित्य है। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने समझाया कि हमें सहना चाहिए। सब जीवन में शांति चाहते हैं।