संबोधि
बंध-मोक्षवाद
मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
(2) ज्ञानस्यावरणेन स्याद्, अज्ञानं तत्प्रभावतः।
अज्ञानी नैव जानाति, वितथं वा यथातथम्।।
भगवान् ने कहा-ज्ञान पर आवरण आने से अज्ञान होता है। उसके प्रभाव से अज्ञानी जीव यथार्थ अथवा अयथार्थ-कुछ भी नहीं जान पाता।
(3) नैतद् विकुरुते लोकान्, नापि संस्कुरुते क्वचित्।
केवलं सहजालोकं, आवृणोति निजात्मनः।।
यह आवरण जीवों को न विकृत बनाता है और न संस्कृत। यह केवल अपनी आत्मा के सहज प्रकाश को ढकता है।
(4) ज्ञानस्यावरणं यावद्, भावशुद्ध्या विलीयते।
अव्यक्तो व्यक्ततामेति, प्रकाशस्तावदात्मनः।।
भावों की विशुद्धि के द्वारा ज्ञान का जितना आवरण विलीन होता है, उतना ही आत्मा का अव्यक्त प्रकाश व्यक्त हो जाता है।
(5) पदार्थास्तेन भासन्ते, स्फुटं देहभृताममी।
ज्ञानमात्रमिदं नाम, विशेषस्याऽविवक्षया।।
आत्मा के उस प्रकाश से संसार के ये पदार्थ स्पष्ट रूप से प्रतिभासित होते हैं। यदि उसके विभाग न किए जाएँ तो उस प्रकाश को ज्ञानमात्र ही कहा जा सकता है।
ज्ञान के स्वरूप को समग्र दृष्टिकोण से देखें तो वह एक है। उसके विभाग नहीं होते। जहाँ विभाग किए जाते हैं वहाँ उसका प्रकाश कुछ सीमाओं में बंध जाता है। बिजली का प्रकाश बल्ब की ही शक्ति पर निर्भर करता है। वैसे ही ज्ञान आवरण की तारतमता पर आधारित है। वह ज्ञान है लेकिन पूर्ण विशुद्ध नहीं। अविशुद्धि के आधार पर उसके पाँच विभाग होते हैं। पाँचवाँ विभाग पूर्ण शुद्ध है।
(1) मतिज्ञान-इंद्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान। (2) श्रुतज्ञान-शब्द, संकेत और स्मृति से होने वाला ज्ञान। (3) अवधिज्ञान-मूर्त द्रव्यों को साक्षात् करने वाला ज्ञान। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से इसकी अनेक अवधियाँ-मर्यादाएँ हैं, इसलिए इसे अवधिज्ञान कहा जाता है। (4) मनःपर्यवज्ञान-मन की पर्यायों को साक्षात् जानने वाला ज्ञान। इससे दूसरे के मन को पढ़ा जा सकता है। (5) केवलज्ञान-पूर्ण शुद्ध ज्ञान। ज्ञानावरणीय कर्म के पूर्ण क्षय होने पर पूर्ण ज्ञान प्रकट हो जाता है। उस स्थिति में आत्मा के लिए कोई अज्ञेय नहीं रहता। आवृत्त दशा में ज्ञान अपूर्ण रहता है। सूर्य के साथ इसकी तुलना घटित होती है। जैसे बादलों से ढके हुए सूर्य का प्रकाश स्पष्ट नहीं होता और बिना बादलों के प्रकाश स्पष्ट होता है, वैसे आवृत्त दशा में आत्मा का ज्ञान स्पष्ट नहीं होता। ज्यों-ज्यों आवरण हटता है, त्यों-त्यों प्रकाश होता जाता है।
‘केवल’ शब्द के पाँच अर्थ हैं-असहाय, शुद्ध, संपूर्ण, असाधारण और अनंत।
केवलज्ञान का विषय सब द्रव्य और पर्याय है। कुछ आचार्य इसका अर्थ करते हुए लिखते हैं कि केवलज्ञानी वह है जो आत्मा को सर्वरूपेण जानता है।
उपर्युक्त पाँच ज्ञानों में प्रथम दो ज्ञान परोक्ष और अंतिम तीन प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। जो ज्ञान इंद्रिय-सापेक्ष होता है, वह परोक्ष और जो आत्म-सापेक्ष होता है, वह प्रत्यक्ष कहलाता है।
वस्तुवृत्त्या ज्ञान एक ही है-केवलज्ञान। आवरणों की अपेक्षा से उसके पाँच भेद होते हैं। जब आवरण पूर्ण रूप से टूट जाता है तब संपूर्ण ज्ञान-केवलज्ञान प्रकट हो जाता है। (क्रमशः)