साँसों का इकतारा
(88)
मैं माटी का दीप जोत अब तुम्हीं जलाओ।
मैं समदर की सीप तुम्हीं मोती उपजाओ।।
नहीं जानती स्वर-लय ज्ञान कहाँ से पाऊँ
साँसों की सरगम पर कैसे गीत सुनाऊँ
कर अध्यात्म साधना सोई शक्ति जगाऊँ
अनुभव कर ऊर्जा का आगे बढ़ती जाऊँ
सूखे जीवन-उपवन में मधुमास खिलाओ।।
खिलते प्रातःकाल सुमन सायं मुरझाते
दुनियावी आकर्षण केवल मन भरमाते
अनुòोत में ही बहता संसार समूचा
प्रतिòोत में पर कितने मानव चल पाते
साहस भर जीवन में मंजिल तक पहुँचाओ।।
(89)
पदचिÐ बने जिसके दीपक वह ज्योतिर्धर कहलाता है
साँसें संगीत बने जिसकी वह जन जीना सिखलाता है।।
पहचान स्वयं की जिसे पूर्ण वह ही जग को पहचान सके
जिसकी आँखों में भोर पले वह ही प्रकाश को जान सके
अधरों की चौखट से बाहर शब्दों को सही अर्थ मिलता
पुरुषार्थ प्रखर होता जिसका कष्टों में कभी न वह हिलता
कर्तृत्व जगाए जो अपना वह बनता युग-निर्माता है।।
मिट्टी में गलता बीज स्वयं बरगद बनकर छाया देता
प्राणों में गहरी टीस उठे तब बन पाया नर नचिकेता
मन-इंद्रिय पर जिसका शासन वह मानव है सचमुच जेता
हर युग उसकी पूजा करता कलियुग हो या द्वापर त्रेता
अधरों पर आता नाम वही जो दुख के दुर्ग ढहाता है।।
जब तेज धर्म का क्षीण पड़े सूनी हो जीवन की राहें
मन के छालों से पीर रिसे मुख से निकले बेबस आहें
वर्चस्व धर्म को जो देकर जीवन-पथ को आबाद करे
रिसते घावों पर लगा लेप निर्भय होकर अवसाद हरे
जो स्वयं गीत बनकर उभरे गीतों का रस बरसाता है।।
(90)
तुम ज्योतिपंुज हे महादीप!
जीवन को ज्योतिर्मय कर दो
जो तिमिर बिछा मन-मंदिर में
करुणा कर अब उसको हर दो।।
तुम महासमंदर समता के
कर कृपा मुझे सागर कर दो
कर सकूँ स्वल्पतम आस्वादन
यह छोटी-सी गागर भर दो।।
तुम महासूर्य हो सहòांशु
मैं केवल एक किरण तेरी
सपना देखा रवि बनने का
कर दो साकार बिना देरी।।
तुम हो सुमेरु के उच्च शिखर
मैं मात्र तलहटी का रजकरण
शिखरों की यात्रा कर पाऊँ
जीतूं जीवन का समरांगण।।
तुम महामेघ पुष्करावर्त
मेरे प्राणों में अमित प्यास
पीयूष पिला दो जी भरकर
संतृप्त रहे प्रत्येक श्वास।।
(क्रमशः)