संवर और निर्जरा से मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो सकता है : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 2 अगस्त, 2021
अप्रमत्त महासाधक आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देषणा देते हुए फरमाया कि ठाणं आगम में अनेक बातें प्राप्त होती हैं। जैन दर्शन में नव तत्त्वों की बात भी आती है और छ: द्रव्यों की बात भी आती है। ये दो वर्गीकरण हैंषड् द्रव्यवाद और नव पदार्थवाद।
षड्द्रव्यों का एक वर्गीकरण है, नव पदार्थों का अलग वर्गीकरण है। छ: द्रव्यों में जो चीजें हैं, वे नव पदार्थों में भी समाविष्ट की जा सकती है और नव पदार्थों में जो चीजें हैं, वे छ: द्रव्यों में समाविष्ट की जा सकती है।
ठाणं के नौवें स्थान में बताया गया हैसद्भाव पदार्थ नौ हैंजीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष। छ: द्रव्यों में छ: चीजें हैंधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय।
इनके दो वर्गीकरण इसलिए किए गए हैं कि लोक की जानकारी करनी है, तो षड्-द्रव्यवाद की उत्पत्ति हो जाती है।
आत्मा के कल्याण की जानकारी, अध्यात्म की जानकारी करनी हो तो नव पदार्थवाद की बात सामने आती है। षड्-द्रव्यवाद अस्तित्ववाद है। नव पदार्थ उपयोगितावाद है।
नव तत्त्वों में चार युगल है। एक-दूसरे से विरोधी हैंजैसे जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आश्रव-संवर, बंध-मोक्ष। निर्जरा है, वो भी लगभग मोक्ष से जुड़ा हुआ है।
पदार्थ है, उनमें सामान्य गुण भी है और विशेष गुण भी होते हैं। जीव और अजीव में समानता भी है। अस्तित्व की दृष्टि, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, परमेयत्व, ये चीजें जीव में भी हैं और अजीव में भी हैं। विशेष गुण से दोनों में असमानता है। अगुरु लघुत्व दोनों में हो सकता है। दोनों में समानता बहुत है, पर थोड़ी सी भिन्नता है। इस भिन्नता के आधार पर दो नाम पड़ गएजीव और अजीव। समानता के आधार पर नहीं पड़े हैं।
समानता अच्छी चीज है, तो भिन्नता भी सब जगह बुरी चीज नहीं होती है। भिन्नता-भिन्नता से उपयोगिता भी होती है। अभेद का महत्त्व है, तो भेद का भी महत्त्व है। जहाँ अभेद की अपेक्षा है, अभेद देख लें, जहाँ भेद की अपेक्षा है वहाँ भेद देख लें। पाँच अंगुलियाँ हैं, वहाँ भेद भी है, अभेद भी है। भेद हैं, तभी पहचान हो सकती है।
जहाँ एकता दिखानी वहाँ हम सब संघ के सदस्य हैं। पर अनेक भी हैं, कोई आचार्य है, बहुश्रुत है, अग्रणी है, सहयोगी है। भेद के आधार पर कार्य की उपयोगिता हो जाती है। इसी तरह जीव और अजीव में अभेद है, पर भेद के आधार पर दो नाम हो गए हैं।
भेद का विषय-बिंदु बनता हैचैतन्य। जीव में चैतन्य है, वह चैतन्य अजीव में नहीं हो सकता। प्राणी सारे जीव हैं, पदार्थ अजीव हैं। पुण्य-पाप दोनों ही पुद्गल है, दोनों में समानता भी है और एकत्व भी है। पुण्य में शुभत्व है, पाप में अशुभत्व है, इसलिए भेद हो जाता है। कर्म आगमन का मार्ग है, वह आश्रव है। कर्म आगमन के मार्ग को निरुद्ध कर देना वह संवर हो जाता है। एक लाने वाला, एक रोकने वाला।
निर्जरा-कर्मों को काटना और आत्मा की उज्ज्वलता निर्जरा है। बंधजो कर्म बंधे हुए हैं वह बंध है। सारे कर्मों से आत्मा मुक्त हो जाए तो वह मोक्ष की स्थिति बन जाती है। जहाँ अध्यात्म की जिज्ञासा है, वहाँ बताना होता है, यह जीव है, ये अजीव आदि नौ तत्त्व है। अध्यात्म की साधना
का प्रतिपादन करने वाला बन जाता है। इसलिए नव पदार्थ एक अध्यात्मवाद से जुड़ा हुआ है।
षड्-द्रव्य के जो छ: द्रव्य हैं, वो अस्तित्ववाद से जुड़े हुए दुनिया के मूल तत्त्व हैं। जहाँ पीछे अस्ति आए वह अस्तित्ववाद है। जहाँ अस्ति-अस्ति नहीं आता वो अध्यात्मवाद का तत्त्व है।
ये नव पदार्थ है, इनको अच्छी तरह जान लेने से अध्यात्म का मार्ग एक सीमा तक प्रशस्त बन सकता है। नव पदार्थों को तालाब के दृष्टांत से भी समझाया गया है। दीक्षा देनी है, तो नव पदार्थ आलेखना कराए बिना कहा गया है, दीक्षा नहीं देनी। नौ पदार्थों में संवर, निर्जरा और मोक्ष है। मोक्ष के दो आयाम हैंसंवर और निर्जरा।
नव पदार्थों में और सूक्ष्मता में जाए तो अध्यात्म की साधना के मुख्य ये तीन तत्त्व हैं। करने के दो ही तत्त्व हैंसंवर और निर्जरा। यह दोनों नव पदार्थ के सारांश हैं। उपादेय तो मोक्ष है ही। संवर और निर्जरा दोनों कर्तव्य हैं, पर दोनों में ज्यादा गरिमापूर्ण-महत्त्वपूर्ण हैसंवर। उसके बाद निर्जरा का स्थान है। निर्जरा तो मिथ्यात्वी के भी हो सकती है, पर संवर जो हमारे पारंपरिक सिद्धांत की मान्यता है कि मिथ्यात्वी के संवर नहीं होता। चौथे गुणस्थान तक संवर नहीं। निर्जरा तो पहले गुणस्थान में हो सकती है।
अभव्य जिनमें सम्यक्त्व आता ही नहीं है, नौवें ग्रैवेयक देवलोक तक जा सकते हैं। संवर की साधना पंचम गुणस्थान से पहले नहीं होती। संवर की साधना मजबूत है, तो निर्जरा को तो होना ही पड़ेगा। गाय है, तो बछड़ा गाय के पास आ जाएगा, संवर है, तो निर्जरा तो होगी ही होगी।
साधु के सम्यक्त्व संवर आ गया तो फिर हर क्रिया में निर्जरा होगी। नव तत्त्व अध्यात्म से जुड़े हुए हैं। उनमें भी संवर निर्जरा और मोक्ष विशेष है। नव तत्त्वों में प्राण तत्त्व है, वह मानों संवर है। मोक्ष के लिए करणीय संवर ही है। संवरों मोक्ष कारणं, आश्रवो भवहेतु स्यात्। संवर बड़ा महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। हम संवर निर्जरा की साधना में आगे बढ़ते रहें, यह काम्य है।
पूज्यप्रवर ने माणक-महिमा का विवेचन किया एवं उपस्थित तपस्वियों को तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए।
मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि जब तक त्याग की चेतना नहीं जागती है, तब तक व्यक्ति दूसरों से परास्त होता रहता है। त्याग की शक्ति का अपना महत्त्व होता है। देवता स्वर्ग में रहने वाले होते हैं, वे अपना आध्यात्मिक विकास नहीं कर सकते।
पूज्यप्रवर की अभिवंदना में यहाँ के ट्रस्टी राजेंद्र भालावत, मदनलाल टोडरवाल (पूर्व अध्यक्ष-महाप्रज्ञ सेवा संस्थान) मोर्निंग क्लब से कर्नल रमेशचंद लट्ठा, वत्सल रांका, धृति रांका ने अपने भावों की अभिव्यक्ति दी।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने बताया कि प्रमाद से दु:ख मिलता है और गुरुप्रसाद से सुख मिलता है।