साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

 

(119)

रोशनदान मुक्त हैं मन के
पल भर अपनी छवि दिखलाओ।
कान तरसते तुमको सुनने
रसमय कोई गीत सुनाओ।।

जिस दिन से अदीठ तुम जग से
मन का मधुकर मौन हो गया
पूछ रहा कुदरत का कण-कण
इस जहान में कौन खो गया
जीवन के सूने मंदिर में
आकर कोई दीप जलाओ।।

बाट निहारें बोझिल पलकें
नयनों में वह बिम्ब कहाँ है
जिसे देखने की आतुरता
उसका अब प्रतिबिम्ब कहाँ है
सुधा समंदर सूख गया क्यों
अब भी रस की धार बहाओ।।

सुधियों की आहट में उलझे
प्राणों को कैसे सहलाऊँ?
भावों का सैलाब उमड़ता
कैसे उनको सुर दे पाऊँ?
शहर गाँव या बियाबान हो
मस्ती का आलम रचवाओ।।

करुणा के हिमगिरि पिघलो अब
समता का सिंचन पाना है
लंबा सफर दूर है मंजिल
पर आगे बढ़ते जाना है
आँसू भी मुस्कान बिखेरे
ऐसा कोई पाठ पढ़ाओ।।

(क्रमशः)