मनोनुशासनम्

स्वाध्याय

मनोनुशासनम्

आचार्य तुलसी

ध्यान के आलंबन असंख्य हो सकते हैं किंतु ध्यान की लंबी परंपरा में साधक वर्ग ने कुछ विशेष अनुभव प्राप्त किए हैं। उनके आधार पर ध्यान के आलंबनों का वर्गीकरण किया गया है। वह वर्गीकरण ध्यान के प्रकारों का निमित्त बना है।
स्थूल व्यवहार की भाषा में एकाग्रता को हम एक कोटि में रख देते हैं, किंतु सूक्ष्म दृष्टि से उसकी असंख्य कोटियाँ हैं। एक व्यक्ति एक क्षण में जितना एकाग्र होता है, दूसरे क्षण में उससे अधिक यह कम एकाग्र भी हो सकता है। एक आदमी जितना एकाग्र होता है, दूसरा उससे कम या अधिक भी हो सकता है। इस प्रकार काल-क्रम और व्यक्ति-भेद की दृष्टि से एकाग्रता की असंख्य कोटियाँ हो जाती हैं। इनके आधार पर एकाग्रतात्मक ध्यान के असंख्य प्रकार हो जाते हैं। किंतु इस सूक्ष्म पद्धति के आधार पर ध्यान की कोटियाँ निश्चित नहीं की गई हैं। उसकी चार कोटियाँ हैं और वे आलंबन के वर्गीकरण के आधार पर निर्धारित की गई हैं। आलंबन चार रूपों में वर्गीकृत हैµ(1) पिंड (शरीर), (2) रूप (आकार), (3) पद (शब्द), (4) रूपातीत (निराकार)।
इनके आधार पर एकाग्रतात्मक ध्यान के चार प्रकार बन जाते हैंµ
(1) पिंडस्थµपिंड के आलंबन से होने वाली एकाग्रता।
(2) पदस्थµपद के आलंबन से होने वाली एकाग्रता।
(3) रूपस्थµरूप के आलंबन से होने वाली एकाग्रता।
(4) रूपातीतµअरूप के आलंबन से होने वाली एकाग्रता।
पिंडस्थ ध्यान
पिंडस्थ ध्यान में शरीर का आलंबन लिया जाता है। आत्मा और शरीर में एकत्व नहीं है, किंतु उनका संयोग है। आत्मा चेतन है और शरीर अचेतन। अतः आत्मा और शरीर स्वरूप की दृष्टि से भिन्न हैं। शरीर आत्मा की अभिव्यक्ति और प्रवृत्ति में सहयोग करता है, इसलिए उसमें सर्वथा भेद भी नहीं है। इस दृष्टि से सशरीर आत्मा न केवल चेतन और न केवल अचेतन है, किंतु जात्यान्तर हैµचेतन और अचेतन का संयोग है। प्राणशक्ति, भाषा, इंद्रिय और चिंतनµये न चेतन के लक्षण हैं और न अचेतन के लक्षण हैं किंतु चेतन और अचेतन की समन्वित अवस्था के लक्षण हैं। आत्मा की ज्ञानात्मक शक्ति और शरीर का पौद्गलिक सहयोग, ये दोनों मिलकर सशरीर आत्मा के अस्तित्व को प्रकट करते हैं।
शरीर के पाँच प्रकार हैंµ
औदारिकµयह अस्थि-मांसमय स्थूल शरीर है।
वैक्रियµयह अस्थि-मांसरहित स्थूल शरीर है। यह योगी के भी हो सकता है।
आहारकµयह योगज शरीर है। इसे एक स्थान से दूसरे स्थान में प्रेषित किया जा सकता है।
तैजसµयह विद्युत् शरीर है।
कार्मणµयह मूल शरीर या संस्कार शरीर है।
तेजस और कार्मणा दोनों सूक्ष्म शरीर हैं।
चैतन्य का विस्तार बाह्यजगत की ओर होता है, तब उसकी गति सूक्ष्म से स्थूल की ओर होती है और जब वह बाह्यजगत से अंतर्जगत में लौटता है तब उसकी गति स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है।
स्थूल शरीर की निष्पत्ति कार्मण शरीर के होने पर होती है, इस दृष्टि से वह सब शरीरों का मूल कारण है। स्थूल शरीर भवान्तरगामी नहीं होते। सूक्ष्म शरीर भवान्तरगामी होते हैं। उनमें भी भवान्तरगमन के संस्कार कार्मण शरीर में संचित रहते हैं। इस दृष्टि से यह संस्कार शरीर भी है।
आत्मा का सबसे निकट संपर्क कार्मण शरीर से है। आत्मा के चैतन्य और वीर्य सर्वप्रथम इसी में संक्रांत होते हैं। तैजस शरीर उन्हें स्थूल शरीर तक पहुँचाता है और स्थूल शरीर के द्वारा वे अभिव्यक्त होते हैं। इस प्रकार आत्मा के चैतन्य और वीर्य कार्मण शरीर, तैजस शरीर और स्थूल शरीर की क्रमिक प्रक्रिया से बाह्यजगत तक पहुँचते हैं और वे विपरीत प्रक्रिया से बाह्यजगत के प्रभाव को आत्मा तक पहुँचाते हैं और वे विपरीत प्रक्रिया से बाह्यजगत के प्रभाव को आत्मा तक पहुँचाते हैं। बाह्यजगत का प्रभाव सर्वप्रथम स्थूल शरीर पर होता है। उसे तैजस शरीर कार्मण शरीर तक ले जाता है और कार्मण शरीर के माध्यम से वह आत्मा तक पहुँचता है। इस प्रकार तैजस शरीर प्रेषण के माध्यम से काम करता है। योग के आचार्यों ने तेजोमय आत्मा की परिकल्पना की है। आत्मा की तेजोमयता की परिकल्पना का निमित्त यह तैजस शरीर ही है।
कार्मण और तैजस शरीर सूक्ष्म शरीर हैं, इसलिए इनके अवयव नहीं हैं। वे अवयव-विहीन शरीर हैं। वे स्थूल शरीर के अवयवों में परिव्याप्त हैं। साधारणतया वे समूचे शरीर में परिव्याप्त हैं किंतु शरीर के कुछ भागों में वे विशेष रूप से केंद्रित हैं। ये केंद्रित भाग चैतन्य की अभिव्यक्ति के मुख्य केंद्र हैं। पिंडस्थ ध्यान में इन्हीं केंद्रों पर मन को एकाग्र किया जाता है। चैतन्य की अभिव्यक्ति के शारीरिक केंद्र ये हैंµसिर, भ्रू, तालु, ललाट, मुँह, नेत्र, कान, नासाग्र, हृदय, नाभिµइन केंद्रों पर ध्यान करने से मन की एकाग्रता सरलता से सधती है और आंतरिक ज्ञान विकसित होता है।
पिंडस्थ ध्यान में चक्रों का आलंबन भी लिया जाता है।
चक्र
‘संसारिणां वीर्यं निमित्तापेक्षंµसंसारी जीव की समस्त शक्तियों का उपयोग निमित्त के योग से ही होता है। जीव में चैतन्य है, किंतु उसका उपयोग इंद्रियगोलकों और ज्ञानवाहक स्नायु-गुच्छकों के माध्यम से होता है। जीव में वीर्य है किंतु उसका उपयोग कर्मेन्द्रियों व क्रिया-तंतुओं के माध्यम से होता है। उन्हीं सुषम्नागत ज्ञानवाही गुच्छकों को चक्र कहा गया है। वे ज्ञान की अभिव्यंजना के निमित्त हैं, इसलिए उन पर मन को एकाग्र करने से उनमें प्राणधारा प्रवाहित होती है। ज्ञान के सहायक तंतु सक्रिय हो जाते हैं।
चक्रों के नाम, स्थान आदि अगले पृष्ठ पर देखिएµ
वासना-क्षय की दृष्टि से स्वाधिष्ठान चक्र पर ध्यान करने का बहुत महत्त्व है।
मणिपुर चक्र पर ध्यान करने से शारीरिक आरोग्य बढ़ता है किंतु उससे कामशक्ति प्रबल होती है, इसलिए ब्रह्मचारी के लिए आवश्यक है कि वह मणिपुर चक्र पर ध्यान करने के पश्चात् प्राणधारा को हृदय चक्र में प्रवाहित कर विशुद्धि चक्र तक ले जाए। उसमें उस कामशक्ति का शोधन हो जाता है।
आज्ञा चक्र या भृकुटि चक्र का बहुत महत्त्व है क्योंकि इस स्थान में इड़ा, पिंगला और सुषुम्नाµतीनों का संगम होता है। इसके जागरण से अन्य चक्रों का जागरण सहज हो जाता है और इसका जागरण अन्य चक्रों की अपेक्षा अधिक कठिन और अधिक अभ्यास-सापेक्ष है।
मूलाधार चक्र से ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी बनाया जाता है। उसके ऊर्ध्वगामी होने से मनुष्य की वृत्ति आंतरिक हो जाती है। ऊर्जा के ऊर्ध्वीकरण का यह आदि बिंदु है। इसलिए साधना में इसका बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है।
अनाहत चक्र प्राणवायु का स्थल और औजस का मुख्य केंद्र हैµ
तत्परस्यौजसः स्थानं तत्र चैतन्यसंग्रहः
µ चरक, सूत्रस्थान 30/7
विकल्प-शून्यता की प्राप्ति के लिए हृदय-चक्र पर ध्यान देना और उसकी गहराई में उतरना बहुत ही उपयोगी है। हृदय-चक्र पर ध्यान करने से ग्रंथि-भेद हो जाता है। उससे आत्म-साक्षात्कार सुलभ हो जाता है।
चक्रों पर ध्यान करने से ज्ञानतंतु जागृत होते हैं, किंतु उन्हें जागृत करने का एकमात्र यही उपाय नहीं है। संयम की प्रखर साधना और प्रबल वैराग्य हो तो चक्रों पर ध्यान किए बिना ही वे जागृत हो जाते हैं।
प्रेक्षा का अर्थ हैµप्रकृष्ट या गहरे में उतरकर देखना। हम बाहर की ओर देखते ही हैं। हमारी इंद्रियाँ और मन, इन सबकी गति बहिर्मुखी है। प्रेक्षा इसका विपरीत क्रम है। इसके द्वारा इंद्रियाँ और मन अंतर्मुखी बनते हैं। हमारे शरीर में रासायनिक परिवर्तन होते रहते हैं। उसके कई हेतु हैं, जैसेµसर्दी, गर्मी आदि बाहरी वातावरण, भोजन, वर्तमान चित्तपर्याय और कर्म का उदय। जब हम प्रयत्नपूर्वक कर्म का शीघ्र विपाक कर उसे उदय में लाते हैं तब और अधिक रासायनिक परिवर्तन होता है। इस रासायनिक परिवर्तन को प्रेक्षा के द्वारा देखा जा सकता है।
प्रेक्षा करते-करते मन सूक्ष्म और संवेदनशील हो जाता है और समूचे शरीर के ज्ञान तंतु जागृत हो जाते हैं। इसलिए शरीर में होने वाले रासायनिक परिवर्तनों को सहज ही जाना जा सकता है।
प्रेक्षा के विशेष प्रयोग
मन को सिर से पाँव तक ले जाना, शरीर के प्रत्येक अवयव में चेतना को प्रवाहित करना और साथ-साथ वेदना को देखना और उसके प्रति तटस्थ रहना प्रेक्षा का पहला चरण है। इसके बाद अर्धचेतन और अवचेतन मन के स्तर पर होने वाली प्रतिक्रियाओं और कर्म विपाकों को देखना, यह प्रेक्षा का अग्रिम चरण है। देखना और तटस्थ रहना ये दोनों मिलकर प्रज्ञा को जागृत करते हैं। उसके जागृत होने पर मोह-चक्र टूट जाता है।
सिर से पाँव तक और पाँव से सिर तक प्रत्येक अवयव को देखने का अभ्यास पुष्ट हो जाए और दर्शन के साथ-साथ चैतन्य का कण-कण झंकृत हो जाए तब एक साथ कई अवयवों पर मन को ले जाना चाहिए। इसका अभ्यास पुष्ट होने पर समूचे शरीर पर एक साथ मन को ले जाना चाहिए। इस अभ्यास से मन पर नियंत्रण स्थापित हो जाता है। फिर हम उसे जहाँ ले जाना चाहें वहाँ वह चला जाता है और जहाँ स्थिर करना चाहें वहाँ वह स्थिर हो जाता है।
प्रेक्षा में विशेष ध्यान देने योग्य यह है कि अप्रमाद निरंतर बना रहे। प्रिय संवेदन के प्रति राग और अप्रिय संवेदन के प्रति द्वेष न जागे। एकाग्रता का अभ्यास परिपक्व हो, वह प्रेक्षा का उद्देश्य नहीं है। पर वह इसका सशक्त साधन है। वह इससे सधती है। पहले से सधी हुई हो तो प्रेक्षाकाल में वह बहुत उपयोगी बन जाती है।
चित्त को किसी निश्चित देश में स्थिर करना धारण है। वह शरीर या उससे भिन्न अन्य वस्तुओं पर की जा सकती है। देहाश्रित धारणाएँ पिंडस्थ ध्यान की कोटि में समाविष्ट होती हैं। धारणा के चार प्रकार हैंµपार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी।

(क्रमशः)