बढ़ चले चरण

बढ़ चले चरण

साध्वी नीतिप्रभा
चरण को गति देता है मन। मन के बिना चरणों में गति आना संभव नहीं है। मन भी सहयोगी बन जाता है, चरणों में गति भी आ जाती है। लेकिन कुछ चरण उठते हैं और रुक जाते हैं, उनके लिए मंजिल कोशों दूर हो जाती हैं। कुछ चरण कुछ कदम चलते हैं बाद में ठहर जाते हैं, थक जाते हैं, लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाते हैं। चरणों को लक्षित मंजिल तक पहुँचाने में सहयोगी बनता है उसका दृढ़-संकल्प। जहाँ दृढ़-संकल्प होता है वहाँ चाहे आँधी हो या तूफान बस उठे चरण कभी नहीं थमते। वो बाधाओं को चीर अपना मार्ग बना लेते हैं। अविश्राम चलते हुए अपनी मंजिल को प्राप्त कर लेते हैं।
जो चरण अपनी लक्षित मंजिल तक पहुँच जाते हैं, ऐसे उठे चरण विरल ही होते हैं। इस विशेषता के कारण ही वो चरण अपना इतिहास बना लेते हैं। जन-जन में प्रेरणा स्त्रोत बन जाते हैं। इसी इतिहास की कड़ी में एक नाम जुड़ा है मुनि अजय प्रकाश जी स्वामी (चेन्नई) का। उन्होंने न जाने क्या-क्या सपने संजोए, अपने दृढ़-संकल्प के द्वारा।
जन्म और शिक्षा
मुनि अजय प्रकाश जी का जन्म वि0सं0 2018 श्रावण शुक्ला पूर्णिमा को हुआ। आपके पिताश्री माणकचंद जी कांकरिया, मातुश्री श्रीमती सज्जनदेवी कांकरिया थी, आप छह भाई और दो बहनें आठ भाई-बहन थे। छह भाईयों में आप तीसरे नंबर पर थे। आपका घर पर नाम अजय कुमार था। आपकी पहचान ‘अजु’ के नाम से थी। आपकी शिक्षा पीपाड़ सिटी में हुई। आप पीपाड़ सिटी निवासी और चेन्नई प्रवासी थे। आप अपनी शिक्षा के बाद 1983 में मद्रास चले गए। वहाँ आपके दूसरे नंबर के बड़े भाई संपतराजजी पहले 1980 में गए हुए थे। काम अच्छा चलने लगा।
योग से वियोग, वियोग में योग
आपकी पहली शादी सन् 1989 में रूण निवासी श्री संपतराज जी चोरड़िया की सुपुत्री मंजु देवी से हुई। लगभग 7-8 महीने ही व्यतीत हुए होंगे कि श्रीमती मंजुदेवी बीमार हो गई। टाईफाइड में काला पीलिया ने भयंकर रूप ले लिया। बहुत ईलाज करवाया, लेकिन सफलता नहीं मिली। शादी के लगभग 11 माह के बाद उनका देहावसान हो गया। जो संयोग बना वह वियोग में बदल गया। हर्ष शोक में बदल गया। समय बीत रहा था।
सन् 1991 में ब्यावर निवासी श्री निहालचंदजी कुमट की सुपुत्री नगीना के साथ आपका योग बैठा। फिर से आपने परिवार बसाया। 24 नवंबर, 1992 को एक नन्हीं कली ने जन्म लिया। तितिक्षा (खुशबू) नाम दिया। उसकी किलकारियों से घर गुंजने लगा। परिवार में खुशियाँ छा गई।
प्रस्फुटित संस्कार बचपन से
आपका पीपाड़ सिटी में घर ओर भवन की एक ही दीवार है तथा पहले चातुर्मास प्रायः-प्रायः हुआ करते थे। अतः इसी कारण आपके धार्मिक संस्कार अच्छे पुष्ट थे। सामायिक, स्वाध्याय, तप-जप में भी अच्छी रुचि थी, लेकिन वैराग्य जागृत नहीं हुआ।
गृहस्थ जीवन में प्रायः आप एक सामायिक किया करते थे। लेकिन दुकान की छुट्टी के दिन तो यदि कोई काम नहीं होता तो पाँच-पाँच सामायिक अपनी पत्नी को साथ लेकर कर लेते। कभी-कभी पुत्री खुशबू को भी करवाते।
ऐसे बढ़े आगे बदम
श्रीमती नगीना का वैराग्य जब वह सातवीं कक्षा में पढ़ती तब से ही था। लेकिन माँ को मोह और परिस्थितियों ने आगे नहीं बढ़ने दिया। क्षयोपक्षम पका नहीं था अथवा तेरापंथ और तीन के संयम का था तो भला अकेले संयम ले भी कैसे सकती। नगीना ने अपने पति अजय कुमार जी को तैयार करना शुरू किया। समझाना शुरू किया। संघर्ष किया। आखिर नगीना के पुरुषार्थ ने सफलता हासिल कर ही ली। पुत्री को जन्म से पूर्व ही भावनात्मक संस्कार देकर तैयार कर लिया और धीरे-धीरे अजयकुमार जी का मन भी जीत लिया।
संयम लक्ष्मी ने दी दस्तक रूप चौहदस को
तीनों के चरण एक ही दिशा में गतिमान हो गए। सन् 2001 में आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी का चातुर्मास अहमदाबाद था। वह धनतेरस की रात लगभग 9ः30 बजे हमने गुरुदेव के समक्ष भावना रखी। चौदस के दिन गुरुदेव ने हमारी भावना को ध्यान में रखते हुए हमें 21 नवंबर, 2002 को संस्था में प्रवेश होने का फरमा दिया। हमारे मन में अति उल्लास था।
6 जुलाई, 2003 (आषाढ़ शुक्ला सप्तमी 2060) को हमारी दीक्षा सूरत में हुई। आपने सपरिवार संयम लेकर एक इतिहास बनाया। कांकरिया परिवार के तीन सदस्य गुरु चरणों में समर्पित हो गए।
साधना ने पकड़ी तेज रफ्तार
आपके चरण तीव्र गति से साधना की ओर बढ़ने लगे। ऐसा लग रहा थाµ
साधना के रास्ते, निर्जरा के वास्ते। बढ़ चले चरण।
मोक्ष की मंजिल मिले, शक्ति के गुलशन खिले।। बढ़ चले चरण।।
संयम लेते ही इस संयम यात्रा की शुरुआत मासखमण से की और अंतिम यात्रा भी मासखमण से हुई। इस शुरू और अंत की कड़ी के बीच वर्षीतप, मासखमण आदि-आदि आयंबिल भी अनेक किए।
उपवास/अनेक 2/अनेक, 3/अनेक, 5/ दो बार, 8/ दो बार।
वर्षीतप लगातार/10 वर्ष, लगातार बेले/21 मास, मासखमण/8 बार, 41 की तपस्या/ 1 बार, 1 से 11 की लड़ी/1 बार। ये आपके तप का विवरण रहा।
यात्राएँ रही सुखकर
दक्षिण भारत, मुंबई, गुजरात, मारवाड़, मेवाड़ आदि।
संघ के ऋण से भी बने मुक्त
आपने लगातार 3 वर्ष तक शासनश्री मुनि बच्छराजजी स्वामी की सेवा में नियुक्त हो और अपना चाकरी का भार भी उतार दिया।
आपका संयम जीवन लगभग 20 वर्ष का रहा। आपने अपने जीवन का बहुत सार निकाला, आनंद उठाया। जनता को भी आपकी मधुर वाणी ने मोहित किया। जहाँ आप पधारते, वहाँ हम जाते और कोई प्रसंग का जाता तो लोग कहतेµमुनि अजय प्रकाश जी तो हमारे खास थे। हमें सेवा करवाते। यह प्रेरणा तो हमें उनसे ही मिली है। वास्तव में तप-जप में किसी को संलग्न करना, आगे बढ़ाना। यह हमारे संघ की ही सेवा है। इससे भी बड़ी सेवा है जागरूकता।
आपके मनोबल ने दिया दृढ़ता का परिचय
आपका स्वास्थ्य ठीक हो या नहीं, परंतु आपकी जागरूकता सदैव प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन की बनी रही। आपने अपने छोटे-मोटे सभी दोषों का प्रतिलेखन किया और भीलवाड़ा में गुरुदेव से आलोयणा कर ली। जो कुछ बाकी रही उसकी भी आलोयना अंत समय में मुनि धर्मेशकुमार जी से कर ली।
2008 में हुबली से विहार करते समय रास्ते में भयंकर वेदना हुई। आपके लिए डॉॅक्टर ने सलाह दी कि आपको बैंगलोर दिखाना जरूरी है। इस वेदना में गुरुदेव का संदेश आया। साधन से ले जाया जा सकता है। मुनि धर्मेश कुमार जी, मुनि विनोद कुमार जी तैयार थे। पर आपने उस आज्ञा का उपयोग नहीं किया, पैदल ही पधारे।
दूसरा प्रसंग है देवगढ़ से गोगुंदा चातुर्मास के लिए पधारना था, उस समय आपका पेट भयंकर वेदना से ग्रस्त था। आपकी सेवा में आचार्यप्रवर ने कृपा कर मुनि स्वास्तिककुमार जी के ग्रुप को नियुक्त किया। फिर भी आप वहाँ से पैदल पधारकर ही गोगुंदा चातुर्मास किया। साधन का प्रयोग नहीं किया। भीलवाड़ा में आपको 4-5 दिन साधन का प्रयोग करना पड़ा। पूरे साधना काल में अवस्वस्थता की स्थिति में भी आपने 4-15 दिन प्रयोग किया। वास्तव में आपका मनोबल बड़ा सराहनीय था।
आपके संध्याकाल के समय अनेकों-अनेकों लोगों का परिवारजन का परामर्श रहा कि ईलाज करवाना चाहिए। एक बार भिन्न समाचारी में जाकर ईलाज करवा लें। लेकिन आपका उत्तर यही होता। मानों मैं आप लोगों की सलाह से भिन्न समाचारी में चला जाऊँ और ईलाज भी करवा लूँ। अगर कोई मेरी गारंटी ले कि मैं ठीक हो जाऊँगा या जीवित रह जाऊँगा। यदि कोई ठेका न ले सके तो बताओ मैं ईलाज क्यों करवाऊँ। यहाँ वेदना भी सहूँ, भिन्न समाचारी, लगाऊँ और संयम में दाग लगाऊँ, भव बिगाड़ूं, ऐसा मैं कभी नहीं करूँगा।
मैं तो संयम को आगे बढ़ाते हुए संथारा करूँगा। मुझे अपने जीवन का सार निकालना है। मेरा किसी के प्रति मोह भाव नहीं है। वास्तव में ‘ज्यों की त्यों धर दिन्ही चदरिया’ की कहावत को यथार्थ कर दिखाया। आपकी आत्मनिष्ठा, संघनिष्ठा और गुरुनिष्ठा बड़ी बेजोड़ थी।
मुनि धर्मेश कुमार जी, मुनि धीरज कुमार जी आपको बहुत समाधि पहुँचाई। यह आपने कई बार फरमाया। आपकी आत्मा कर्मों का क्षय करती हुई लक्षित मंजिल को प्राप्त करें। अनंत सुखों को पाने के लिए ज्योति से ज्योति मिले। आप मेरे और तन्मयप्रभा जी के लिए सदैव प्रेरणा स्त्रोत बने रहेंगे, यही मंगलकामना।