समता की जलती मशाल - मेरे रोल माॅडल : साध्वी सोमलताजी
दशवैकालिक सूत्र में कहा गया- ‘‘सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई’’ अर्थात् जो ऋजुभूत होता है उसी में धर्म ठहरता है। इस आर्ष वाणी को सार्थक करने वाली तेरापंथ धर्म संघ की प्रतिष्ठित व सरलमना आत्मा ‘शासनश्री’ साध्वी सोमलताजी का आत्मबल, संकल्पबल, धृतिबल व उच्च मनोबल अनुकरणीय तथा प्रशंसनीय है। ऐसी पुण्यात्मा, चारित्रात्मा, विरल आत्मा जिन्होंने अपनी प्रखर प्रेरणा कुशल मार्गदर्शन के द्वारा मेरे जीवन को संवारा, मेरे भीतर सुदृढ़ संस्कारों का सिंचन किया। शासनश्रीजी की वत्सलता की छोटी सी नजीर तथा उनके गुणों की महक को यहां प्रस्तुत कर रही हूं।
वात्सल्य बरसाते नयन - शासनश्रीजी का जीवन करूणा का बहता दरिया था। नयनों में झलकता वात्सल्य तथा मधुरभाषी वक्तव्य आबाल, वृद्ध सभी को चुंबक की तरह खींच लेता। प्रेमपूर्ण तथा आत्मीय व्यवहार से हर कोई इंसान उनका अपना बन जाता था।
प्रसन्नता से लबरेज- आचार्यश्री महाश्रमण जी फरमाते हैं- प्रसन्नता तथा विनम्रता से चेहरे का सौंदर्य बढ़ता है। शासनश्रीजी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। भयंकर वेदना में भी उनके चेहरे की प्रसन्नता सदाबहार रहती। उनकी प्रसन्नता से उनका आभामंडल भी पवित्र
तथा पाॅजिटिव रहता। साध्वीश्री का चेहरा अंतिम सांस तक गुलाब के फूल की तरह चमक रहा था।
प्रमोद भावना- साधु हो या साध्वी, छोटा हो या बड़ा वह किसी में भी गुणों को देखती, उनके गुणों का गुणगान कर उनके उत्साह को शतगुणित कर देती थी। प्रमोद भावना से वह चित्त में आह्लाद की अनुभूति करती तथा कहती थी कि जब भी मैं गुणीजनों
का गुणगान करती हूं मेरी जिह्वा धन्य हो
जाती है।
उपशांत कषाय- शासनश्रीजी के कषाय सहज शांत थे। आप कभी गुस्सा नहीं करती, कड़े शब्द नहीं फरमाती। आप कहती थी कि हमेशा शांति से रहो, प्रत्येक कार्य सहजता तथा शांति से करो।
विलक्षण गुरु भक्ति- शासनश्रीजी की गुरु भक्ति विलक्षण तथा विचक्षण थी। गुरुदेव द्वारा प्रदत्त मंत्र ‘‘५१ बार नमोत्थुणं’ का जप उनके लिए संजीवनी बूटी बन गया था। गुरु मंत्र का जप किए बिना वह पानी भी मुंह में नहीं लेती। उन्हें अंतिम चतुर्मास में गुरुकुलवास में रहने का दुर्लभ योग प्राप्त हुआ। यद्यपि स्वास्थ्य की दृष्टि से बीच में ही विहार करना पड़ा। साध्वीश्रीजी को गुरुदेव के मंगलपाठ पर अद्भुत श्रद्धा थी, उनको विश्वास था कि मैं स्वस्थ हो जाऊंगी लेकिन आयुष्य कर्म के आगे सभी को झुकना ही पड़ता है। जब उनका बैठना, चलना, बोलना सब कम होता गया तो वो सोते-सोते ही पैन डायरी अपने पास रखती। उन्होंने अपने हाथों से लिखकर गुरुदेव तथा संघ के प्रति भक्ति रस से भरे दो गीतों का निर्माण किया और कहा जब भी गुरुदेव के दर्शन करो मेरे भावों की अभिव्यक्ति दे देना। वह अपने आपको धन्य मानती और कहती कि मुझ पर गुरु की अनंत कृपा है, मुझ पर गुरुदेव का बहुत उपकार है जिसे मैं जन्मों-जन्मों तक नहीं भूल सकती हूं।
गुरुदेव ने महती कृपा कर अंतिम संदेश में लिखा था- साध्वी सोमलता जी वर्तमान में धर्मसंघ की विरल साध्वी है। गुरु के मुखारविंद से निकले इन वचनों से साध्वीश्री का संयमी जीवन धन्य हो गया, निहाल हो गया। हम सभी साध्वियां गुरुदेव के प्रति अनंत-अनंत कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।
समता की जलती मशाल - मोक्ष जाने की सीढ़ी है समता। लगता है शासनश्रीजी के असाता वेदनीय कर्मों का ज्यादा ही उदय चल रहा था। ५५ वर्षों के संयम पर्याय में अनेक रोगों ने, असाध्य बीमारियों ने अटैक किया, ४-५ बार बड़े-बड़े ऑपरेशन भी हुए लेकिन समता, सहिष्णुता, प्रसन्नता बेमिसाल थी। पिछले ८ महिनों से पाचन शक्ति बिल्कुल कमजोर हो गई। पानी भी नहीं पचता, डायरिया की भयंकर बीमारी, बैक-बाॅन के नीचे इतना बड़ा घाव, भयंकर पीड़ा, इतनी शारिरीक व्याधियों से जूझते हुए भी उनकी समता गजब की थी।
हम साध्वियों का हृदय द्रवित हो जाता, हाथ-पैर कांप उठते, आंखें बहने लगती। वो कहती मेरे तो निकाचित कर्मो का उदय चल रहा है, वो तो भोगना ही पडे़गा। तुम साध्वियां कितनी सेवा करती हो, रात में आराम से सोती भी नहीं हो, दिन में आहार भी नहीं करती हो, ऐसे गुणगान करते-करते गला अवरूद्ध हो जाता, आंखें सजल हो जाती। जितनी वेदना थी उतनी तो उन्होंने सेवा भी नहीं ली। ऐसी भीषण वेदना में भी चेहरे पर स्मित मुस्कान, सौम्य मुद्रा तथा गुरु-कृपा बस यही शब्द मुंह से निकलते रहते थे।
ऐसी समता, सहिष्णुता का कुछ अंश मेरे मैं भी आए। ‘भिक्षु-भिक्षु म्हारी आत्मा पुकारे’ गीत को सुनकर उन्हें अमन चैन की अनुभूति होती।
उग्रविहारी तपोमूर्ति मुनिश्री कमल कुमारजी स्वामी का आध्यात्मिक तथा आत्मीय सहयोग सहोदरी भगिनी तथा हम साध्वियों को प्राप्त हुआ। गुरुदेव ने मुनिश्री को दादर भेजकर साध्वीश्री पर अनन्त कृपा करवाई, वह कभी नहीं भूल सकती। मुनिश्री दिन में दो-तीन बार पधारते, सेवा करवाते, आलोयणा करवाते, स्वाध्याय-गीत आदि सुनाते। वे हमेशा कहते- मेरी भगिनी को संथारे बिना मत जाने देना, उनका मुझ पर बहुत उपकार है। अंतिम समय में उनकी भावना सफल हुई। तेरापंथ के इतिहास में यह स्वर्णिम पृष्ठों में लिखा जाएगा कि एक भाई ने अपनी भगिनी को चौविहार संथारा पचखा कर भाई का फर्ज निभाया और आत्मबली साध्वीश्री के जीवन का कल्याण कर दिया।
वो मेरी राॅल मॉडल थी- मेरे संयम प्रदाता, जीवन नैया के खेवणहार आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मुझ पर महत्ती कृपा कर नवदीक्षित साध्वी के रूप में वर्ष २०१४ में गंगाणै की पुण्य धरा पर मुझे शासनश्रीजी को वंदना करवाई। साध्वीश्री ने मुझे अंगुली पकड़कर लिखना सिखाया। संयम में, समिति-गुप्तियों में, साधुत्व से संबंधित प्रत्येक कार्य में जागरूकता की प्रेरणा तथा शिक्षण-प्रशिक्षण प्रदान करवाती रहती थी।
अग्रगण्य के रूप में आपश्री की मुझे लगभग १० वर्षों तक आध्यात्मिक सेवाएं प्राप्त हुई। लोच करना, सिलाई, रंगाई, भाषण देना, गीत गाना आदि सब कुछ आप सिखाती रहती। शासनश्रीजी मेरे बाह्य विकास के साथ आंतरिक विकास का भी बहुत ध्यान रखती थी। वे फरमाते- बड़ों के प्रति विनय रखना, सामने नहीं बोलना, तहत् कहना, मधुरभाषी रहना आदि। मेरे डॉक्टर, टीचर, मोटीवेटर सभी कुछ आप ही थी।
आपश्री ने आर्शीवाद देते हुए फरमाया- ‘‘थे तो म्हारा टाबर हो, खूब हंसता-खिलता रहिज्यो, ज्ञान-ध्यान करता रहिज्यो, सरल-सरस जीवन जीणो है, अच्छी सतियां बणणो है।’’ आपश्री का आशीर्वाद हर पल हर क्षण मेरी साधना को आगे बढ़ाता रहेगा।
शासनश्रीजी ने जो कुछ सिखाया, पठाया, सुदृढ़ संस्कार दिए, हृदय की अंतहीन गहराईयों से में अनंत कृतज्ञता ज्ञापित करती हूं। तेरापंथ धर्मसंघ की दीपती साध्वी आखों से ओझल हो गई।
अंत में यही मंगलकामना करती हूं कि साध्वीश्रीजी की पवित्र आत्मा जहां कहीं भी है सिद्ध, बुद्ध, मुक्त बनें... इसी शुभाशंषा के साथ...
तू नहीं तेरी उल्फत अभी तक दिल में है।
बुझ चुकी है शमां, फिर भी रोशनी महफिल में है।