अविकल्प संकल्प की प्रतिमा : साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा जी
साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी के मनोनयन दिवस पर वंदन-अभिनंदन
संकल्प की स्याही से ही सफलता के हस्ताक्षर होते हैं। दृढ़ मनोबल और अविकल्प संकल्प रूपी चरण जिनकी साधना की यात्रा को गति देते हैं- उनका नाम है साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभा जी। साध्वीप्रमुखाश्री जी का जीवन अथ से अब तक 'शिवसंकल्पमस्तु मे मनः' की परिक्रमा कर रहा है। कुशल कार्यशैली और सकारात्मक सोच ने उनके जीवन को नई दिशा प्रदान की है। संकल्प लेना जितना सरल है उतना ही कठिन है उसकी अविकल्प साधना। साध्वीप्रमुखाश्री जी की अविकल्प संकल्प की साधना उनकी हर सिद्धि की चाबी है।
बाल्यावस्था में साध्वीप्रमुखा श्री जी ने संकल्प किया कि मुझे संयम के संस्कारों को पुष्ट करना है, संयममय जीवन जीना है। योग मिला संसार पक्षीम बड़े भ्राता के कठोर अनुशासन का, जिसने संयम की चेतना को प्रखर बनाया। फलस्वरूप सरोज मोदी साधना के मार्ग पर प्रस्थित हो गई। बचपन में प्राप्त संयम की घूंटी आज भी नस-नस में प्रवाहित है, अनुशासन का दीप आज भी प्रज्वलित है।
साध्वीप्रमुखाश्री जी के व्यक्तिगत जीवन और दिनचर्या में ये दोनों तत्व आहार संयम, वाणी संयम आदि अनेक रूपों में सहचर बने हुए हैं। साथ ही संपूर्ण साध्वी समाज का पथ प्रदर्शित कर रहे हैं।
'अप्पाखलु सययं रक्खियव्वो सव्विदिएहिं सुसमाहिएहिं' - सर्व इन्द्रियों को संयमित कर आत्मा की सुरक्षा करना मुमुक्षु सविता का प्रथम लक्ष्य रहा। आत्मसंयम और स्वानुशासन के गुणों से प्रभावित हो पारमार्थिक शिक्षण संस्था के व्यवस्था पक्ष ने मुमुक्षु सविता में छिपी नेतृत्व शैली को पहचाना और मुमुक्षु बहनों की साधना संबंधी व्यवस्था का दायित्व सौंप दिया। भविष्य में समणी स्मितप्रज्ञा और मुख्य नियोजिका के रूप में मुमुक्षु बहनों का सफल मार्गदर्शन किया। साथ में समण श्रेणी को प्रथम नियोजिका के रूप में अनुशासन के साथ विकासोन्मुख किया तथा वर्तमान में सम्पूर्ण साध्वी समाज के लिए साध्वीप्रमुखाश्री जी का संकल्प बल, अनुशासन तथा संयमयुत नेतृत्व प्रेरणा है, प्रोत्साहन है।
जितना बड़ा दायित्व, उतना मजबूत संकल्प बल। उपकरणों की सीमा रखकर 'लघुभूतविहारी' बने रहने का संकल्प आज भी प्रबल है। आहार संयम व तप के प्रति विशेष रुझान प्रारंभ से ही रहा है। किसी भी परिस्थिति में निर्धारित तप का क्रम यथावत् रहता है। साथ ही वर्षों से चलने वाली द्रव्य सीमा की साधना स्वाद विजय का प्रतीक है। मिठाई का ग्रास साध्वियों को अवश्य प्रदान करवाते हैं, किन्तु मिष्ठान कभी भी प्रमुखाश्रीजी के मुख का ग्रास नहीं बनता। विहार, स्वास्थ्य, पारणा या मनुहार द्रव्य सीमा के संकल्प को बाधित नहीं कर पाते। ऐसा लगता है पांच मांडलिक दोषों से रहित आहार आपकी साधना का विशेष प्रयोग है। आहार करने की क्रिया अवश्य होती है लेकिन उसकी मानसिक या वाचिक प्रतिक्रिया नहीं नजर आती। इसीलिए साध्वी समाज को भी आहार संयम की प्रेरणा प्राप्त होती रहती है। समणश्रेणी में आपने वर्षों तक अष्टमी, चतुर्दशी को कायोत्सर्ग प्रतिमा का प्रयोग किया है। रात्रि शयन में भले ही देरी हो किंतु ब्रह्म वेला में जागरण के बाद होने वाले ध्यान, जप, स्वाध्याय आदि ऐसे सहचर हैं, जो शक्ति के स्रोत बने हुए हैं।
साध्वीप्रमुखाश्री जी के दृढ़ संकल्प का प्रथम प्रहरी है- जागरूकता। इसीलिए संकल्प कभी विकल्पों में नहीं भटकता। प्रकृति में भी देखा जाए तो जो वृक्ष प्रारंभ से जड़ों के सिंचन से तने को मजबूती देते हैं वह ऊंचा बढ़ जाता है। जो वृक्ष कम ऊंचाई में भी शाखा, प्रशाखाओें में बंट जाता है, वह ऊंचाई को प्राप्त नहीं कर पाता है जैसे एरण्ड का वृक्ष ऊंचा नहीं बढ़ पाता, जबकि नारियल का पेड़ एक लक्षी हो तने को उन्नत करता है और अंत में शाखा-प्रशाखाओं व अमृत सम पेय और श्रीफल पैदा करता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति विकल्प रूपी प्रशाखाओं में न उलझकर संकल्प रूपी तने को मजबूती देता है वह उन्नत हो जाता है।
अविकल्प संकल्प की प्रतिमा साध्वीप्रमुखा श्री विश्रुतविभाजी के उन्नत बनने का कारण है- अटल संकल्प। जो उनकी तपस्या, साधना, लेखन, गुरुनिष्ठा, साधुचर्या, दिनचर्या आदि अनेक आयामों में नींव का पत्थर बना हुआ है। अविकल्प संकल्प को नमन।