संघ सारथि
संघ सारथि गतिशीलता देख तुम्हारी दुनिया हुई दिवानी।
एक हाथ में गणरथ थामें, चीर भवार्णव लिखते नई कहानी।।
वासुदेव-सा शौर्य तुम्हारा, संघ चक्र चल रहा गति से,
कम्पित धरती तुम अकम्पित, चलते अविचल धृति से।
शौर्यवान तुम, धैर्यवान तुम, मुख-मुख आज जुबानी।।
रूप-लावण्य बलदेव जैसा, नयन-वदन रवि शशि समाया,
आभामंडल की अद्भुत आभा में, शीतल चंदन-सी है छाया।
अध्यात्म बली के बल की कोई, होती है क्या जग में शानी।।
भरत चक्री ज्यों अनासक्त तुम, दिग्दिगन्त धर्मध्वजा फहराई,
ज्ञान, दर्शन, चारित्र त्रिपथगा से गण उपवन सुषमा सरसाई।
आत्मा नदी संयम तोयपूर्णा, आत्मकल्याणी ओजस्वी वाणी।।
तुलसी तुला में तुले अतुलनीय! तुलसी की तुम तृतीय खोज हो,
महाप्रज्ञ गहन चिंतन में अन्तर्मुखी! तुम महनीय सोच हो।
हर कौशल कमनीय तुम्हारा, रहे सलामत सदा जवानी।।