कषाय मुक्तता से होता है मोक्ष का मार्ग प्रशस्त : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 27 सितंबर, 2021
वीतराग कल्प, धर्मज्ञाता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अमृत देषणा प्रदान करते हुए फरमाया कि ठाणं आगम में बताया गया है कि मुंड के दस प्रकार हैं। मुंड का अर्थ हैदूर कर देना। अलग कर देना। अलग कर देने वाला व्यक्ति मुंड कहलाता है। प्रश्न हैकिसको दूर करना? दस प्रकारों में पहला प्रकार हैश्रोतेंद्रिय मुंड। श्रोतेंद्रिय-कान के विकार को अपनीत-दूर करने वाला व्यक्ति श्रोतेंद्रिय मुंड होता है। आदमी कान से सुनता है। हम संज्ञी मनुष्य हैं। व्यवहार में, समुह में रहने वाले हैं, तो कितनी बार सुनने का काम पड़ता है। आदमी सुनता है, सुनकर पचाने की हमारी शक्ति अच्छी चाहिए। हर सुनी हुई बात को मुँह से बाहर निकालना, इसमें विवेक हमारा होना चाहिए। दूसरा मुंड हैचक्षुरिन्द्रिय मुंड चक्षुरिन्द्रिय के विकारों का अपनयन करने वाला।
आँख से हम कितना देखते हैं, कान से हम कितना सुनते हैं, किंतु सारा देखा हुआ और सारा सुना हुआ भिक्षु कहे नहीं, बोले नहीं। यह साधु का संयम होना चाहिए। कई बातें भीतर में रखनी चाहिए। भीतर में चली गई बातों को निकलवाना हर किसी के वश की बात नहीं होती। इसका एक उदाहरण है मुनि मगनलाल जी स्वामी। पूज्य डालगणी और मुनि मगनलाल जी के प्रसंग को समझाया। मुनि मगनलाल जी से बात निकलवाला बड़ा श्रम का काम होता था। पूज्य डालगणी को भी उनसे बात निकलवाने के लिए बड़ा श्रम करना पड़ा।
श्रोतेंद्रिय विकार को अपनीत करने वाला श्रोतेंद्रिय मुंड, चक्षुरिन्द्रिय विकास को अपनीत करने वाला चक्षुरिन्द्रिय मुंड इसी प्रकार घ्राणेंद्रिय मुंड, जिह्वेन्द्रिय मुंड और स्पर्शेंद्रिय मुंड ये पाँच तो इंद्रिय के संदर्भ में मुंड। क्रोध मुंड-गुस्से को दूर करने वाला, मुंड-अहंकार को दूर करने वाला, माया मुंड-माया का अपनयन करने वाला, लोभ मुंड, लोभ का अपनयन करने वाला। ये चार कषाय मुंड हो गए।
अंतिम है, सिरोमुंड, सिर के केशों को अपनीत करने वाला। केवल केशों को दूर करना एक बात है, विकारों को दूर करना विशेष बात है। मूंड मुंडाने से ही कोई तर जाता तो, भेड़ क्यों नहीं तर सकती, उसका कल्याण क्यों नहीं हो सकता। पहले इंद्रिय मुंड और कषाय मुंड बनो। इंद्रियों को विकारों से बचाना इंद्रिय मुंड और कषाय है, उनको दूर रखना कषाय मुंड है। अंत में हैसिर मुंड।
इंद्रिय मुंड और कषाय मुंड नहीं बना तो मुक्ति नहीं मिलेगी। सिर मुंड बिना तो शायद मुक्ति मिल सकती है। ठाणं में बताए ये दस प्रकार एक दृष्टि देने वाले हैं। इंद्रिय विकारों और कषायों का अपनयन करने का बहुत महत्त्व है। साधु के सिर मुंड भी होता है, पर साथ में साधना करना जरूरी है। पाँच इंद्रियाँ हैं, ये हमारे ज्ञान का माध्यम बनती हैं। यह एक कथानक से समझाया कि इंद्रियों का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। हम अपने जीवन में इस मुंडत्व की साधना में आगे बढ़ें, यह हमारे लिए काम्य है। पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह - जीवन-विज्ञान दिवस पूज्यप्रवर ने फरमाया कि आज अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह के अंतर्गत दूसरा दिन जीवन-विज्ञान दिवस है। जीवन-विज्ञान परमपूज्य आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ जी से जुड़ा हुआ है। यह एक शिक्षा जगत से संबद्ध मुख्यतया तत्त्व है। आदमी विकृति में चला जाए और उसे ठीक करने का प्रयास किया जाए। ऐसा क्यों न हो कि विकृति में जाने से पहले इन बातों का ध्यान रखो। बचाव की संभावना कुछ बन सकती है।
पानी आने से पहले पाल बाँध दी जाए। जीवन-विज्ञान मानो पानी आने से पहले पाल बाँधने का प्रयास है। विद्यार्थी जीवन है, तभी से अच्छे संस्कार आ जाएँ कि वह और बड़ा हो तो भी उसमें अवांछनीय विकृतियाँ उसके जीवन में न आ सके। संस्कार संपन्न शिक्षक अपने विद्यार्थियों को अच्छे संस्कारी बनाने का प्रयास करें। जैन विश्व भारती की 50वीं साधारण सभा के अवसर पर पूज्यप्रवर ने फरमाया जैविभा तेरापंथ समाज से जुड़ी हुई एक संस्था है। जो आधी शताब्दी पार करके छठे दशक में गतिमान है। यह एक बड़ी संस्था है, बाह्य आकार-प्रकार बड़ा है। प्रकार के संदर्भ में इसकी गतिविधियाँ भी महत्त्वपूर्ण है। हम साहित्य की दृष्टि से देखें तो वर्तमान में तो तेरापंथ समाज में एक मूल प्रकाशन संस्था के रूप में जैविभा है।
समण संस्कृति संकाय के द्वारा जैन विद्या का अवसर दिया जा रहा है, वह भी बड़ा महत्त्वपूर्ण है। प्रेक्षाध्यान आदि अनेक गतिविधियाँ जुड़ी हुई हैं। संस्था कामधेनू है, कामधेनू से जो दूध मिल रहा है, वो अपने आपमें महत्त्वपूर्ण बात है और विद्यालय की भी बात है। मुनि कीर्तिकुमार वर्षों से जैविभा से जुड़े हुए हैं। कार्यकर्ताओं की भी कितनी शक्ति लगी है। कितना काम हुआ है।
ऐसी संस्था का होना तेरापंथ समाज के लिए सौभाग्य की बात है। डिम्ड यूनिवर्सिटी भी साथ में जुड़ी हुई है। अनेकों के योगदान से यह संस्था बड़ी हुई है। एक दिन में ये नहीं बनी है और भी विकास को अवकाश है। जैविभा में हमें जाना भी है। कई प्रोग्राम कह रखे हैं। संत-समणियाँ व मुमुक्षु बाईयाँ भी उस परिसर में रहती हैं। जैविभा के कार्यकर्ता इसके आध्यात्मिक, धार्मिक उत्थान में अपना समय लगाते हैं। अच्छा काम करते रहें। मुख्य नियोजिका जी ने केवलज्ञान के पाँच प्रकारों को विस्तार से समझाया। अभ्यास से आदमी को पूर्णता की ओर ले जाता है। मृगावती सती का दृष्टांत विस्तार से समझाया। केवली के लक्षणों को समझाया।
साध्वी वर्याजी ने मंगलभावना के दूसरे प्रकार‘हृीं सम्पन्नो: साम’ को समझाते हुए कहा कि मैं अनुशासन संपन्न बनूँ। आत्मा का दमन-नियंत्रण करो। आत्मा पर अनुशासन करना दुर्लभ है। वही व्यक्ति सुखी बन सकता है, जो आत्मा पर अनुशासन कर लेता है। जो स्वयं अनुशासित है, वो दूसरों पर अनुशासन कर सकता है। अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह जीवन-विज्ञान दिवस पर अशोक डूंगरवाल ने अपने भावों की अभिव्यक्ति दी। जैविभा अध्यक्ष मनोज लुणिया ने अपनी भावना श्रीचरणों में अर्पित की। अमृत सामसुखा-भीलवाड़ा जो अभी आईपीएस की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए हैं, अपने भाव अभिव्यक्त किए। पूज्यप्रवर ने उन्हें खुद का जीवन अच्छा रहे। जीवन में नैतिकता, ईमानदारी हो, धार्मिक स्मरण भी रहे, यह प्रेरणा दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।