सब गतियों में सर्वश्रेष्ठ है मनुष्य गति : आचार्यश्री महाश्रमण
भीलवाड़ा, 26 सितंबर, 2021
अणुव्रत अनुशास्ता आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अमृत देषणा देते हुए फरमाया कि ठाणं आगम में गति के दस प्रकार बताए गए हैं। सारे जीव इस लोकाकाश में ही हैं। और वे पाँच गतियों में हैं। एक भव से दूसरे भव में जाने के बीच का जो समय है, वह है अंतराल गति या विग्रह गति। पाँच गति और पाँच विग्रह गति मिलाकर दस गतियाँ हो जाती हैं। इस तरह इन दस गतियों में सारे जीव समाविष्ट हो जाते हैं। दस प्रकार है।नरक गति, नरक विग्रह गति, तिर्यंच गति, तिर्यंच विग्रह गति, मनुष्य गति, मनुष्य विग्रह गति, देवगति, देव विग्रह गति, सिद्धि गति और सिद्धि विग्रह गति। विग्रह गति का एक अर्थ होता हैवक्र गति। मृत्यु के बाद अगले भव में जाने के लिए जो मार्ग पार कर जाना होता है, वो अंतराल गति है, जो दो प्रकार की होती हैॠजु गति और वक्र गति। ॠजुगति सीधी गति होती है। वक्र गति घुमावदार होती है। मोक्ष जाने वाला साधु तो सीधा ॠजुगति से ही जाता है। वक्रगति को भी विग्रह गति कहा जाता है।
यहाँ जो विग्रह गति बताई गई है, वो अंतराल गति है, उसमें ॠजु और वक्र दोनों गति आ जाती हैं। मनुष्य है, वह मरकर के हर गति में पैदा हो सकता है। गर्भज मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, वो पाँचों गतियों में जाने वाला हो सकता है और दूसरा कोई प्राणी दुनिया में नहीं है, जो पाँचों गतियों में जा सके। देव आयुष्य पूरा कर न सिद्धि गति में जा सकेंगे, न देव गति में या नरक गति में जा सकेंगे, वे केवल तिर्यंच या मनुष्य गति में ही जा सकते हैं। वैसे ही नारकीय जीव न नरक में न देव गति में जा सकेंगे वे आयुष्य पूरा कर सिद्धि गति में भी नहीं जा सकेंगे, वे केवल तिर्यंच या मनुष्य गति में ही जा सकते हैं। तिर्यंच भी सिद्धि को नहीं प्राप्त कर सकते। बाकी चार गतियों में जा सकते हैं। सिद्धि गति को केवल मनुष्य ही प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए मनुष्य दुनिया का विशिष्ट प्राणी है। ऐसा दूसरा प्राणी दुनिया में कोई नहीं है, जो पाँचों गतियों में जा सके। इतना अधिकार-अवकाश एकमात्र मनुष्य को ही हैं। मनुष्य एक अपेक्षा से सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, क्योंकि वह पाँचों या दसों गतियों में जाने वाला है। असंज्ञी मनुष्य भी सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकते। केवल गर्भज मनुष्य ही इस जन्म के बाद सीधा मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। मनुष्य नरक आदि गतियों में भी जा सकते हैं। एक दूसरे संदर्भ में चर्चा की जाए तो मनुष्य तो अधमतम प्राणी भी है। कारण कोई भी नारकीय जीव तत्काल नरक में पैदा नहीं होगा। कोई भी देव तत्काल नरक में नहीं जाता। मनुष्य एक ऐसा प्राणी है, जो सातवें नरक तक जा सकता है। तिर्यंच भी नरक में जा सकता है। मनुष्यों में भी सिर्फ पुरुष सातवीं नरक तक जा सकते हैं। स्त्री जाति सातवीं नरक में नहीं जाती। इस संदर्भ में देखें तो पुरुष पाप के क्षेत्र में आगे हो सकते हैं। दूसरे कोण से देखें कि कुछ-कुछ उच्च स्थितियाँ ऐसी हैं, जो पुरुष ही प्राप्त कर सकता है, महिला प्राप्त नहीं कर सकती। विशिष्ट साधना पुरुष ही कर सकता है। पुरुषों का अपना वैशिष्ट्य है। दोनों बात हो सकती है। दोनों ध्रुव है, पुरुष के अच्छाई में भी और बुराई में भी। आगम की बातों से कई निष्कर्ष ऐसे निकाले जा सकते हैं। दस गतियों में सिद्धि गति स्थायी है। वहाँ से वापस संसार में आगमन नहीं हो सकता। सिद्धि गति सर्वश्रेष्ठ गति है। बाकी गतियों में स्थायीत्व नहीं है। सिद्धि गति प्राप्त हो जाए तो शाश्वत रूप में वहाँ रहने की व्यवस्था हो सकती है। सिद्धि से पहले साधुत्व को आना ही होगा। साधु बनकर के केवलज्ञान को प्राप्त करना होगा। केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए पहले वीतराग बनना पड़ेगा। साधुत्व नहीं आएगा तो वीतरागता भी नहीं आएगी। केवल ज्ञान केवल दर्शन को प्राप्त कर अयोगा अवस्था को प्राप्त करना होगा। तभी मुक्ति को गर्भज मनुष्य प्राप्त कर सकेगा। साधुत्व भी भावों में आए, औपचारिक रूप में नहीं। जैसे माता मरूदेवा, भरत चक्रवर्ती। हमें सिद्धि गति प्राप्त हो। अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह - सांप्रदायिक सौहार्द दिवस कार्यक्रम के प्रारंभ में अणुव्रत गीत की मंगलाचरण के रूप में प्रस्तुति की गई। परम पावन ने फरमाया कि आज अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह का सुंदर समायोजन हो रहा है। अणुव्रत को जानने का व कार्य करने का विशेष समय होता है। वैसे अणुव्रत तो वर्ष भर चलने का कार्यक्रम होता है। कुछ-कुछ समय बलवत्ता के साथ विशेषतया उस कार्य के लिए शक्ति नियोजन का हो जाता है। अणुव्रत वैसे प्राचीन सिद्धांत है। जैन धर्म का एक प्रकल्प हैअणुव्रत। परम पूज्य आचार्य तुलसी के समय में अणुव्रत को एक व्यापक मंच मिला, रूप मिला। जैन-अजैन कोई हो, अणुव्रत सबमें रह सकता है। आचरण पक्ष निर्मल बनाने का उपक्रम है। इस संदर्भ में अणुव्रत एक असांप्रदायिक कार्य है। अणुव्रत एक ऐसा धर्म है, जो केवल जैन धर्म तक सीमित नहीं है, कोई भी धर्म वाला या धर्म को न मानने वाला मान सकता है। नास्तिक आदमी भी अणुव्रत को मान सकता है, अणुव्रती बन सकता है। गुरुदेव तुलसी के जीवन का महत्त्वपूर्ण और प्रिय कार्य अणुव्रत था। अहिंसा यात्रा के भी तीन उद्देश्य हैंसद्भावना, नैतिकता और नशामुक्ति। इन तीनों में भी अणुव्रत का सार है। सद्भावना है, वो मानो आज के ही दिन का विषय है। सांप्रदायिक सौहार्द है। दुनिया में आज कितने संप्रदाय हैं, संप्रदाय होना एक सौहार्दपूर्ण कार्य हो सकता है। अनेक संप्रदायों में विचार-भेद भी हो सकते हैं, पर सांप्रदायिक उन्माद इस रूप में पैदा न हो कि हिंसा हो जाए। मतभेद-विचारभेद हो सकता है, पर इसमें व्यवहार भेद न हो कि एक-दूसरे को मारने की या हिंसा की बात आ जाए। लोकतंत्र प्रणाली में सब धर्म को मानने का अवकाश है। सबको अपना-अपना स्वातंत्र्य है। भारत एक धर्म-निरपेक्ष देश है। सब आपस में सौहार्द-मैत्री रखें। द्वेष भाव से कोई एक-दूसरे संप्रदाय में बाधा न डाले। आध्यात्मिक संदर्भों में हो सके तो सहयोग करें। साध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभा जी ने कहा कि भारत देश की संस्कृति आदर्श संस्कृति है। इस संस्कृति में परिवार का भी महत्त्व है। संयुक्त परिवार भी है और एकल परिवार भी है। संयुक्त परिवार को वट-वृक्ष के रूप में रेखांकित किया गया है। वहाँ 50-100 सदस्य साथ रहते हैं, पर आज वर्तमान में एकल परिवार ज्यादा पनप रहा है। संयुक्त परिवार में सब साथ मिलकर सुख-दु:ख बाँट लेते हैं, पर एकल, किसको क्या कहे। संयुक्त परिवार टूटने के कई कारण हो सकते हैं। परिवार के सदस्यों का विकास हो। परिवार को जोड़ने के लिए तीन बातें जरूरी हैं(1) व्यक्ति अपने परिवार को स्वीकार करे। (2) आपसी सामंजस्य हो। (3) एक-दूसरे के गुणों का आदर करें। प्रमोद भावना हो, गुण ग्राहकता रहे। रिश्तों को जोड़ना-तोड़ना आसान है, पर निभाना मुश्किल है। सबमें सहनशीलता-स्नेह का भाव रहे। मुख्य नियोजिका जी ने कहा कि केवलज्ञान प्रत्येक मनुष्य में हो सकता है, पर अभी वह अप्रकट-अव्यक्त है। वीतराग बनने के बाद केवलज्ञान का सूर्य जगमगाने लग जाएगा। केवलज्ञान का सहचर केवल दर्शन होता है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय को केवलज्ञानी देख सकता है। केवल दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य, क्षांति, मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव ये केवलज्ञान प्राप्त करने वाले के होते हैं। अणुव्रत समिति भीलवाड़ा की अध्यक्षा आनंदबाला टोडरवाल ने अपने भावों की अभिव्यक्ति दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।