उपासना
(भाग - एक)
ु आचार्य महाश्रमण ु
आचार्य खपुट
आचार्य खपुट का एक भुवन नाम का शिष्य था। वह आचार्य का भानजा था। वह शीघ्रगाही बुद्धि वाला था। आचार्य ने भी उसे अनेक विद्याएँ दी। उसने भी कई विद्याएँ ग्रहण कर ली थी। भृगुकच्छ का राजा बलमित्र बौद्ध था। उसकी राज्यसभा में मुनि भुवन का बौद्धों के साथ महान् शास्त्रार्थ हुआ। बौद्ध पराजित हुए। भुवन के विजयी होने से जैनशासन की अच्छी प्रभावना हुई। जैनों को पराजित करने की भावना को लेकर ‘वड्ढकर’ नामक बौद्धाचार्य ‘गुड़शस्त्रपुर’ से ‘भृगुकच्छ’ आए। भुवन मुनि के साथ शास्त्रार्थ किया। उन्हें भी मुँह की खानी पड़ी। उससे मुनि भुवन का तथा जैन शासन का गौरव बहुत बढ़ा।
एक बार गुड़शस्त्रपुर में एक यक्ष का भयंकर उपद्रव हो गया। जैन संघ विशेषत: उस उपद्रव से घिर गया। गुड़शस्त्रपुर से दो मुनियों ने आचार्य खपुट के पास आकर सारी घटना निवेदित की। आचार्य खपुट वहाँ जाने को तैयार हुए और अपने शिष्य भुवन को ‘कपर्दिका’ (विशेष विद्या से संबंधित पुस्तक) सौंपते हुए कहायह पुस्तक (कपर्दिका) मैं तुम्हें दे रहा हूँ। न तो तुम्हें खोलना है और न ही किसी और को देना है। यों कहकर स्वयं भृगुकच्छपुर से चलकर गुड़शस्त्रपुर पहुँचे। संघ से मिलकर सारी स्थिति की जानकारी ली। आचार्य खपुट यक्षायतन में पहुँचकर यक्ष के कानों में उपानह (जूते) डालकर सो गए। इस व्यवहार से पुजारी का कुपित होना सहज था। उसने राजा से कहा। राजा ने राजपुरुषों को संकेत दिया। खपुट की पिटाई होने लगी। चोंटें लग रही थीं खपुट की पीठ पर; मार से आहत होकर रो रहा था अंत:पुर। राजा ने इसे योगी का सारा चमत्कार माना। राजा आकर खपुटाचार्य के पैरों में गिर पड़ा। क्षमायाचना की, परम भक्त बना। यक्ष प्रतिमा भी द्वार तक पहुँचाने आई, ऐसा कहा जाता है। सारा उपद्रव शांत होने से मुख-मुख पर खपुटाचार्य का नाम गूँजने लगा। संघ को आश्वस्त करने खपुटाचार्य वहीं रहे। उधर भृगुपुर से दो मुनि आए। खपुटाचार्य से निवेदन करते हुए कहादेव! आपके द्वारा निषेध करने पर भी भुवन मुनि ने वह कपर्दिका खोल ली। उससे आकर्षण विद्या प्राप्त करके उसका दुरुपयोग करने लग गया। प्रतिदिन उसके प्रभाव से गृहस्थों के घरों से सरस-सरस आहार को खींचकर उसका उपभोग करने लगा। रसलोलुप बन गया। जब स्थविरों ने ऐसा करने से रोका तो वह कुपित हो उठा। संघ से अपना संबंध-विच्छेद करके बौद्ध हो गया। उसी विद्या के प्रभाव से वहाँ भी सरस आहार को आकाश-मार्ग से खींचने लगा। चमत्कार देखकर लोग भी जैन से बौद्ध बन गए।
आर्य खपुट मुनियों से सारी बात सुनकर भृगुपुर आए। स्वयं अदृश्य रहकर विद्याबल से भुवन के द्वारा खींचे जाने वाले आहार-पात्र बीच में ही विद्या के योग से खंड-खंड कर दिए। लोगों के सिर पर पात्रों के टुकड़े व मोदक आदि गिरने लगे तब ऊहापोह मचा। भुवन ने समझ लिया, आचार्य खपुट आ चुके हैं। अब मेरी दाल गलने वाली नहीं है। तब भयवश वहाँ से भाग गया। आचार्य खपुट की चारों ओर जय-जयकार हो गई। कुछ समय बाद भुवन भी आचार्य के पास आया। क्षमायाचना करके संघ में मिल गया। गुरु ने भी उसे योग्य मानकर बहुमान दिया। अपने व्यवहार से भुवन मुनि ने संघ को पूर्णत: आश्वस्त किया। आचार्य खपुट ने भुवन को सूरि पद देकर अनशनपूर्वक स्वर्ग प्राप्त किया।
एक बार पाटलिपुत्र के जैन संघ के सामने भयंकर राजकीय संकट आया। वहाँ के राजा दाहड़ से जैन श्रमणों को आदेश मिलावे ब्राह्मण वर्ग को नमन करें अन्यथा उनका सिर काट दिया जाएगा। राजा की घोषणा से जैन संघ का चिंतित होना स्वाभाविक था क्योंकि प्रश्न जीवन-संकट का नहीं, धर्म-संकट का था। जैन संघ का ध्यान आर्य खपुट पर टिका। उन्होंने दो मुनियों को आर्य खपुट के पास भेजकर सारी बात कहलाई। खपुटाचार्य ने अपने विद्वान् शिष्य महेंद्र को वहाँ भेजा। दाहड़ की राजसभा में मुनि महेंद्र का विद्या-प्रयोग का प्रदर्शन जैन संघ के हित में हुआ। राजा दाहड़ पैरों में गिरा। क्षमायाचना की। जैनधर्म का भक्त बन गया।
आचार्य खपुट की अनेक चामत्कारिक घटनाएँ इधर-उधर प्रसिद्ध हैं। मलयगिरि जैसे टीकाकार ने उन्हें विद्या चक्रवर्ती बताया। उनका समय वी0नि0 484 (वि0 संवत् 14) के लगभग का माना गया है।
(क्रमश:)