अध्यात्म साधना में अवांछनीय पुण्य की कामना नहीं होनी चाहिए : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

अध्यात्म साधना में अवांछनीय पुण्य की कामना नहीं होनी चाहिए : आचार्यश्री महाश्रमण

तीर्थंकर के प्रतिनिधि युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि आयारो आगम में दो शब्द विशेषतया प्रयुक्त हुए हैं- अध्यात्म और बाह्य। जो अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य को जानता है। जो बाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को जानता है। एक अध्यात्म का जगत है, एक बाह्य जगत है। एक चेतना का एक अचेतना का जगत है। अंतरात्मा में होने वाली प्रवृत्ति अध्यात्म है, शरीर, वाणी और मन की भिन्नता अध्यात्म है।
ज्ञान तो अध्यात्म या बाह्य जगत का हो सकता है। ज्ञान अपने आप में प्रकाशित होता है, दूसरे को भी प्रकाशित करने वाला होता है। केवल ज्ञानी सर्व अध्यात्म और सर्व बाह्य को जानते हैं। ज्ञान अपने आप में एक पवित्र तत्व है। ज्ञान अच्छी-बुरी दोनों बातों का हो सकता है। पाप पुण्य आदि सभी तत्वों को जाना जाता है।
अच्छा और बुरा जानने पर बुरे को छोड़ना चाहिए। नव तत्व में पाप, बंध, आश्रव और पुण्य बाह्य हैं। पुण्य का अध्यात्म जगत में ज्यादा महत्व नहीं है। पुण्य बाह्य है, कर्म पुद्गल है। अध्यात्म साधना में अवांछनीय पुण्य की कामना नहीं होनी चाहिए। संवर, निर्जरा और मोक्ष अध्यात्म की चीज हैं। जो तत्वों को जानता है, इन पर श्रद्धा करता है, उसका सम्यक्त्व पुष्ट होता है। नौ तत्वों में जीव अजीव दो ही मूल तत्व हैं, बाकी सात उन में समाविष्ट हो जाते हैं। पांच तत्व जीव हैं, चार अजीव हैं। हिंसा को जानेंगे तो अहिंसा का पालन हो सकेगा। पक्ष को जानने के लिए प्रतिपक्ष को जानना होगा। अध्यात्म और बाह्य का संबंध है, कोरा अध्यात्म या कोरा बाह्य अपूर्ण ज्ञान है। अध्यात्म और विज्ञान का यथायोग्य समन्वय किया जा सकता है। परिपूर्णता के लिए अध्यात्म और बाह्य दोनों का ज्ञान हो। रहें भीतर अध्यात्म और जिओ बाहर बाह्य हो गया। हम अध्यात्म की साधना करें। ऊपरले व्याख्यान में गुरुदेव ने 'नीति रो प्यालो' के माध्यम से प्रेरणा दी कि हमारी नीति शुद्ध रहे।
साध्वीवर्या संबुद्धयशाजी ने उद्बोधन देते हुए कहा कि चतुर्विशंति स्तव के माध्यम से हम 24 तीर्थंकरों की स्तुति करते हैं। लोक में उद्योत करने वाले जिन की स्तुति करते हैं। 24 तीर्थंकरों को वंदना करने से संसार सागर को पार किया जा सकता है। तीर्थंकरों के नाम में अद्भुत शक्ति है, हमारे अनंत कर्म क्षय हो सकते हैं, भयंकर दावानल शांत हो जाता है। श्रद्धा से साक्षात अनुभूति हो सकती है, नाम के साथ भावना जुड़ जाती है तो वह अचिंत्य फल देने वाली हो जाती है। पूज्य प्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए। कन्या मंडल ने चौबीसी के गीत की प्रस्तुति थी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।