सुरक्षित आत्मा भव भ्रमण से हो जाती है मुक्त : आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

सुरक्षित आत्मा भव भ्रमण से हो जाती है मुक्त : आचार्यश्री महाश्रमण

आत्मरक्षा का पाठ पढ़ने वाले आचार्य श्री महाश्रमण जी ने रक्षाबन्धन के दिन महावीर समवसरण में मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया की आयरो आगम में कहा गया है- आत्मा क्षण भर में मुक्त हो जाती है। जो व्यक्ति संयम में रमण करता है, अरति भाव से दूर रहता है, साधना करते-करते एक क्षण ऐसा आता है कि वह मोह से मुक्त हो जाता है, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय कर्मों से भी मुक्त हो जाता है। आठ कर्मों में सबसे पहले क्षीण होने वाला मोहनीय कर्म होता है। सबसे ज्यादा नुकसानदेह और पापों को लगाने वाला कर्म मोहनीय ही होता है। सबसे पहले विनाश भी इसी का ही होता है। प्रथम चरण में मोह कर्म का, दूसरे चरण में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय कर्म का, तीसरे और जीवन के अंतिम चरण में वेदनीय, नाम, गोत्र और आयुष्य कर्म, इन चारों कर्मों का क्षय होता है। 14वें गुणस्थान की समाप्ति पर ये तीनों कार्य हो जाते हैं। मुक्त होने में बहुत कम समय लगता है, एक समय में आत्मा मोक्ष में चली जाती है, सिद्ध शिला में अनंत समय के लिए स्थित हो जाती है।
हर सिद्ध आत्मा सिद्धत्व की प्राप्ति से पहले कभी न कभी मिथ्यात्वी के रूप में रहती है। आज श्रावणी पूर्णिमा रक्षाबंधन के रूप में प्रतिष्ठित है। लौकिक पर्व में राखी के दिन भाई-बहन का मिलन हो जाता है। हालांकि यह तो बन्धन है। मुक्ति अच्छी होती है तो कहीं-कहीं बन्धन भी अच्छा होता है। हम इस संकल्प का बोध करें कि हमें हमारी आत्मा की सुरक्षा करनी है, इंद्रियों को वश में रखना है। संयम के द्वारा आत्मा की रक्षा करें। अरक्षित आत्मा संसार में भ्रमण करती है, सुरक्षित आत्मा मुक्त हो जाती है। हमारी आत्मा मोहनीय कर्म से मुक्त हो और अन्य कर्मों से भी मुक्त हो जाए। कन्याओं, बहनों के संस्कारों की रक्षा हो, भ्रूण हत्या जैसा काम ना हो। आत्मा की रक्षा, बहनों की रक्षा, संस्कारों की रक्षा, राष्ट्र की रक्षा, अहिंसा की रक्षा, संयम, ईमानदारी, संस्कारों की रक्षा, शरीर की रक्षा, प्राणियों की रक्षा, मातृभूमि की रक्षा तथा देश के नागरिकों की भी रक्षा हो। स्वयं एवं दूसरों की आत्मा को पापाचरण से बचाएं। आज का दिन संस्कृत दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। संस्कृत भाषा के प्राचीन-अर्वाचीन अनेक ग्रंथ हैं। गुरुदेव श्री तुलसी एवं आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी संस्कृत भाषा के प्रकांड विद्वान थे। संस्कृत भाषा का ज्ञान होने से आगम सुबोध हो सकते हैं।
आचार्य प्रवर के मंगल प्रवचन से पूर्व साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभाजी ने जनता को उद्बोधित करते हुए फरमाया कि रक्षा बंधन के दिन बहन भाई की कलाई पर राखी बांधती है। भाई बहन की रक्षा करता है। हमें हमारी आत्मा की रक्षा करनी है। सबसे बड़ा शास्त्रज्ञ वह होता है जो उपशम की चेतना को जगा लेता है। जिसका मन चंचल होता है वह कभी अपने कार्यों में सफलता को नहीं प्राप्त कर सकता। श्वास प्रेक्षा व अनुप्रेक्षा से मन की चंचलता को कम किया जा सकता है। साध्वी स्तुतिप्रभा जी ने सुमधुर गीत का संगान किया। मंगल प्रवचन के पश्चात् पूज्य प्रवर ने तपस्वियों को तपस्याओं का प्रत्याख्यान कराया। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेशकुमार जी ने किया।